कामस्तदग्रे समवर्तताधि मनसो रेत: प्रथमं यदासीत्। सतो बन्धुमसतिनिरविन्दन् हृदि प्रतीष्या कवयो मनीषा:। (ऋग्वेद 10.129.4) -सारा जगत् कामनामय है। जहां मन है वहां कामना है। यही क्षुधा है, जगत् का आधार है। स्त्री तो हर पुरुष के भीतर प्रतिष्ठित है। अत: बाहर-भीतर दोनों ओर से आकर्षित करती है। इसी को कामना कहा है। कामना के लिए ‘काममय’ मन चाहिए। कन्या में भी काममय आकर्षण नहीं होता। स्त्री होनी चाहिए। पुरुष काममय होता है-चन्द्रमा की 16 कलाओं का भोग करके- 16 वर्ष की आयु में। कन्या में काम जाग्रत होता है ऋतुकाल-रजस्वला चक्र के आरंभ से। इसकी आयु कम होती जा रही है। कभी 12-13 वर्ष होती थी, जो आज 9-10 वर्ष की आयु से आरंभ होने लगती है। दाम्पत्य जीवन का आरंभ इसी काल में होता था। स्त्री की उम्र पुरुष से 4-5 वर्ष कम होती थी। शरीर लक्षण ही प्रधान होता था।
स्त्री की प्रजनन शक्ति आर्तव में प्रतिष्ठित है। इसमें मंगल ग्रह का आग्नेय प्राण रहने से इसका रंग भी लाल होता है। मंगल ग्रह मकर राशि में उच्च का होता है। मांगलिक आर्तव में प्रतिष्ठित आग्नेय काम मकरध्वज कहलाता है। उसके काम में आग्नेय पुरुष भाव रहता है। अग्नि शिव तत्त्व है, सोम शक्ति तत्त्व है। शिव शक्ति पर प्रतिष्ठित है, शक्ति शिव की अनुगामिनी है। स्त्री का शरीर सौम्य है, उसे क्रोध नहीं आता, किन्तु सोमवश निर्बल है। परन्तु भीतर शोणित रूप अग्नि है। उसके आत्मा को ठेस लगने पर वह दुर्गा है। बालक भी 16 वर्ष तक सौम्य शरीर और भीतर आग्नेय है। हठीला होता है। शरीर से सुन्दर और सौम्य होता है। स्त्री के समान दिखाई पड़ता है।
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ऋतुकाल के आरंभ के साथ ही स्त्री शरीर में काम भाव प्रबल होने लगता है। क्योंकि शोणित जाग्रत अग्नि ही होता है। अत: यही उसका मूल आक्रामक काल होता है। उसका काम रूप मकरध्वज ब्रह्म की खोज करने को उत्सुक दिखाई पड़ता है। इतिहास में माता-पिता को इन गहन स्वरूपों का ज्ञान होता था। शिक्षित मां-बाप भीतर के अंधकार में देखना नहीं जानते। अत: बाल-विवाह वरदान के स्थान पर अभिशाप बन गया। शब्द का ही अन्तर है। विवाह को ‘बात पक्की होना’ या सगाई शब्द में बदल दें तो समस्या हल हो जाएगी। शादी 18 वर्ष की आयु के बाद ही होगी। परिपक्व उम्र में विवाह के कारण नारी द्वारा ब्रह्म की प्राकृतिक खोज अवैध रूप ले बैठी। कालान्तर में ये सम्बन्ध स्थायी नहीं रह पाते। कई बार अवैध संतान की मां भी बन जाती है। आजकल तो गर्भ निरोधक उपाय भी उपलब्ध हैं और गर्भपात के उपाय भी। उधर समाज में विभिन्न कारणों से यौनाचार भी बढ़ा है, मर्यादाएं भी टूटने लग गई। नारी अकेली पीड़ित होने लग गई।
गर्भ निरोधक गोलियों ने जीव हत्या का नया मार्ग प्रशस्त कर दिया। दवा का विष शरीर में पोषक तत्त्वों का भी नाश करने लगा। रोग निरोधक शक्ति घटने से गर्भाशय/स्तन कैंसर का दंश भोगना पड़ रहा है। गर्भपात में एक मूक प्रभाव भी पुरुष जीवन को बाधित करता है। वह है नारी दोष। स्त्री के प्रजनन चक्र को तो कृत्रिम गर्भपात प्रभावित करता ही है। क्योंकि उसकी प्रसन्नता सृजन में है। आज यौनाचार की प्रधानता एवं मातृत्व से मुक्ति का वातावरण चरम पर है। गर्भपात चिन्तन का विषय नहीं रह गया है। होता रहता है। स्त्री शरीर तो फिर भी सन्तान की तैयारी के दुष्प्रभावों को भोगता ही है।
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नारी दोष की परिभाषा है—नारी के मातृत्व भाव से खिलवाड़। उसे भ्रमित करके उसके विश्वास पर आघात। आज तो सारा प्रपंच ही वीभत्स बनता जा रहा है। एक ओर स्कूल और कॉलेज वासना-भोग-रिश्वत का माध्यम बन गए, दूसरी ओर स्त्री को स्त्री की भूमिका से अपहृत करके उसकी जीवन शैली को पुरुष रूप में परिवर्तित कर दिया। मद्यपान ने शोणित को रौद्र रूप देना शुरू कर दिया। स्वच्छन्दता एवं समानता के भ्रम ने स्त्रीत्व को ही समेटकर रख दिया। धीरे-धीरे यह आदान-प्रदान के रूप में आगे बढ़ गया। जो नारी सम्मान और सुरक्षा की अपेक्षा करती थी, वह बलात्कार की भेंट चढ़ने लग गई। घर के निकट के संबंधियों की हवस का शिकार होने लगी, विवाह-विच्छेद अब सरल हो गया। नारी को सुरक्षा के लिए एक से अधिक घर खोजने पड़ गए। बाहर प्रत्येक उपलब्धि की कीमत शरीर के मुद्रारूप से चुकानी पड़ रही है।
यहां दो प्रकार की स्त्रियाें में नारी समाज बंट गया है। एक जो शुद्ध नारी देह रूप में स्वेच्छा से जीना चाहता है। यह स्त्री-स्वातंत्र्यता का नया-शिक्षित समाज है। दूसरा, परम्परागत वैवाहिक-सूत्र में बंधे रहकर जीवनयापन करना चाहता है। एक नारी के सामने जीवन की कटुता से संघर्ष है। दूसरी स्त्री के संघर्ष में मिठास है एवं अस्तित्व का आभास भी है। वह प्रकृति को स्वीकार करके चलती है। उसे चुनौती नहीं देती। स्वच्छन्दता जल की तरह- सहजता से- नीचे की ओर बहते जाने का मार्ग है। मर्यादा अग्नि की तरह तपकर ऊपर उठने का मार्ग है।
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नारी दोष स्त्रैण भाव के साथ जुड़ा भाव है। स्वच्छन्दता में इसका स्थान नहीं है। देह के भीतर नर-नारी तो एक ही आत्मिक स्वरूप में हैं। प्रारब्ध-कर्मफलों का भोग ही भिन्न-भिन्न परिस्थितियां पैदा करता है। सौम्या स्त्री निर्मलता-सौम्यता-माधुर्य के कारण सहज रूप से अग्नि की ओर आकर्षित हो जाती है। ‘संगात् जायते काम:’ गीता के इस उद्घोष के अनुसार वह अग्नि में आहुत होने को तैयार भी हो जाती है, किन्तु यह आहुति जब आहत कर जाती है, जो कि अधिकांशत: होता है, वहां नारी दोष अपना प्रभाव छोड़ता है। उसका अतृप्त-आन्दोलित आत्मा इस तरह के खिलवाड़-अवहेलना से अपमानित होकर पुरुष आत्मा को अभिशप्त करता है। ज्योतिष के सिद्धान्त के अनुसार यह दोष अगले जन्मों तक पीछे चलता है। विवाह के अतृप्ति के भी अनेक कारण होते हैं। पति की नपुंसकता मुख्य कारण है। प्रारब्ध एक अन्य कारण है जो व्यक्ति को अन्य व्यक्ति से जोड़ता है। वासना संस्कार, स्वच्छन्द वातावरण जैसे अन्य कई निमित्त हो सकते हैं कि मर्यादा में रहते हुए भी स्त्री तृप्ति-मार्ग तलाशती है। पुरुष की यह आवश्यकता कम होती है। वहां आग्नेय वासना में तृप्ति लक्ष्य नहीं होता। यूं भी कह सकते हैं कि उसका कर्म लक्षित ही नहीं होता। अत: तृप्ति का स्थान अहंकार की तुष्टि होता है।
मां को संतान पेट में रहकर नौ-दस माह अहर्निश भोगती है। यह शरीर का नहीं, आत्मा का भोग है। मां शरीर देती है, मन का निर्माण करती है। संस्कारों से परिचय कराकर जीवन का स्वरूप निर्माण करती है। इसी आधार पर व्यक्ति स्त्री की दिव्यता को भोगता है। इसके अभाव में आसुरी सम्पदा व्यक्ति को भोगती है। आज की सभ्यता में स्पष्ट ही नहीं है कि कौन किसको भोग रहा/रही है। क्योंकि दोनों में स्वच्छन्द शरीर में आत्मा सुप्त है, देह ही जीवन का आधार है।
पुरुष में कर्ता भाव नहीं है, प्रकृति कर्ता है। फल तो जीव भोगता है। प्रकृति जब भी आहत होगी- पुरुष को श्राप ही देगी। पुरुष जीवन में यही नारी दोष प्रभावी रहता है। यही नारी का शक्ति स्वरूप है। इसकी दिव्यता भी सूक्ष्म है तो अभिशाप भी सूक्ष्म है। क्रमश: gulabkothari@epatrika.com