युद्ध और प्रेम के दो ध्रुवों के बीच दुनिया का कारोबार सदियों से चल रहा है। प्रेम जैसी अनंत शक्ति की अभिव्यक्ति जितनी कोमल और प्रच्छन्न होती है, उतनी ही कारगर और आनंददायी होती जाती है। इसके तरीके भी चाहे कितने ही आधुनिक होते जाएं, इनके मूल में वही कोमलता है। युद्ध हमारी मानसिकता का ऐसा तंतु है जो अधिक से अधिक घातक और नुकीला होता जा रहा। बारूद के आविष्कार ने तो टकरावों की पराकाष्ठा का मार्ग दे दिया। कभी परिवार में बच्चे के जन्म पर थाली बजाने का रिवाज था। उससे आस पड़ोस वाले तो जान ही जाते थे उल्लास की मुखर अभिव्यक्ति भी हो जाती थी।
आज हम बारूदी युग में हैं। हमारे उल्लास की अभिव्यक्ति भी इस युग के अनुरूप होने लगी है। किसी खेल में देश की विजय पर भी उल्लास की अभिव्यक्ति किसी त्योहार से कम नहीं होती। विकसित देशों में भी अनेक अवसरों पर आतिशबाजी के जरिए उल्लास की अभिव्यक्ति का चलन है। हरदा जैसा हादसा होता है तो यह सवाल उठता ही है कि आखिर उल्लास का यह प्रदर्शन आतिशबाजी से ही क्यों? कुछ तो नियंत्रण करना ही होगा ताकि ऐसे ‘मौत के कारखाने’ पनप नहीं सकें। हम सोच कर खरीदेंगे तो ये विस्फोटक बनेंगे भी कम। जैसे हम सारी दुनिया को अपने उत्साह में शामिल करना चाहते हैं, वैसे ही हमें यह भी चिंता करनी होगी कि कोई चिंगारी किसी का घर-परिवार को बर्बाद नहीं कर दे।