व्यवस्था नागरिकों के सुगम जीवन के लिए स्थापित की जाती है, किंतु राष्ट्र के प्रति दायित्वबोध न होने से वह कुछ ही समय में अव्यवस्था का रूप ले लेती है। इस बार स्वाधीनता दिवस के अवसर पर यदि हम मूलभूत व्यवस्थाओं यथा यातायात नियम पालन, स्वच्छता, नियम सम्मत शहरीकरण, पानी के सदुपयोग जैसे कुछ संकल्प लें, उन्हें अपने जीवन में उतार लें तथा समस्त प्रभावशाली व्यक्ति कानून का उल्लंघन करने वालों का पक्ष नहीं लेने की शपथ ले लें तो देश को वास्तविक विकसित राष्ट्र बनने से कोई नहीं रोक पाएगा।
डॉ. विवेक एस. अग्रवाल
संचार और शहरी स्वास्थ्य विशेषज्ञ वर्ष 2047 तक भारत को विकसित राष्ट्र बनाने की संकल्पना की जा रही है। सवाल यह है कि क्या विकसित राष्ट्र का अर्थ मात्र आर्थिक प्रगति ही है। आर्थिक आंकड़े तो संख्या मात्र हैं किंतु वास्तविकता में विकास की अवधारणा इससे बहुत अधिक व्यापक है। अर्थव्यवस्था के पश्चात विकास पथ को प्राप्त करने के लिए आधारभूत संरचना के नाम पर सड़क, बिजली, पानी आदि को विस्तारित करने की परियोजनाओं पर कार्य किया जाता है। विकसित राष्ट्र तब तक सार्थक नहीं है जब तक प्रत्येक नागरिक इस विकास की धारा में स्वयं को अभिन्न अंग मानते हुए अपना योगदान न दे। जैसे स्वास्थ्य की परिभाषा में व्यक्ति की शारीरिक के साथ मानसिक एवं सामाजिक कुशलता को भी स्थान दिया गया है। इसी प्रकार विकसित राष्ट्र की संकल्पना में व्यक्ति या समाज, अर्थव्यवस्था, आधारभूत संरचना एवं पर्यावरण सभी का समेकित रूप से विकसित होना जरूरी है। इनमें से एक भी अवयव के कमजोर होने पर विकास अधूरा रह जाता है।
व्यक्ति एवं समाज के निर्माण केबिना विकसित संसाधनों का उपभोग भी सीमित ही रह जाएगा। वर्तमान संदर्भ में सारा ध्यान व्यक्ति और समाज निर्माण के अतिरिक्त अन्य समस्त पहलुओं पर केंद्रित है। माना जाता है कि शिक्षण संस्थानों के माध्यम से व्यक्ति और समाज का निर्माण और विकास हो जाएगा, लेकिन दैनन्दिन के जीवन में शिक्षा के विकृत स्वरूप को प्रत्यक्ष देखा जा सकता है। वैसे भी ऐसे शिक्षण संस्थानों से यह अपेक्षा करना ही अतिशयोक्ति है जो कोचिंग और ट्यूशन के भरोसे लक्ष्य प्राप्ति की कामना करते हों। राष्ट्रीय शिक्षा नीति के माध्यम से पहल की गई है कि शिक्षा अपने सही मायने में व्यक्तित्व का विकास करे ताकि बेहतर और उत्तरदायी समाज का निर्माण हो सके। केवल अधिकारों के प्रति रुझान रखना सामाजिक और व्यक्तिगत विकृति का कारण है। किसी भी राष्ट्र की सफलता और अभिवृद्धि के लिए अधिकारों एवं दायित्वों में संतुलन होना अत्यंत आवश्यक है। वर्तमान संदर्भ में यह संतुलन अधिकारों की प्राप्ति और कामना की ओर अधिक झुका हुआ है। दायित्वों के प्रति रुझान कम होने से वास्तविक रूप से हम निर्भर राष्ट्र के रूप में ही जीवनयापन कर रहे हैं। परिवर्तन मात्र इतना है कि पहले शासन व्यवस्था का चयन हम नहीं करते थे।
यदि किसी प्रबुद्ध व्यक्ति से भी राष्ट्र के प्रति मौलिक दायित्वों की चर्चा की जाए तो उत्तर अधिकांशतया मौन ही मिलेगा अथवा करों की अदायगी तक सीमित रह जाएगा। ऐसे में विकसित राष्ट्र कैसे सार्थक रूप लेगा? विडम्बना तो यह है कि यदि कोई व्यक्ति मौलिक अधिकारों से वंचित रह जाए तो वह न्याय की गुहार कर सकता है किन्तु यदि उसने राष्ट्र के प्रति अपने मौलिक दायित्वों का वहन नहीं किया तो किसी भी न्याय व्यवस्था के तहत उसे दंड नहीं दिया जा सकता। यहां तक कि हाल ही लागू भारतीय न्याय संहिता में भी दायित्वों की अवहेलना को संज्ञेय अपराध नहीं माना गया है। शीर्ष स्तर पर भी दायित्वों की पालना के लिए वातावरण निर्माण के ठोस प्रयास नहीं किए जाते। दायित्वों के बोध से ही उत्तरदायी जीवनयापन की नींव पड़ती है। आज भी हम प्रथम मौलिक दायित्व यानी संविधान के अनुकूल व्यवहार से कोसों दूर हैं। सामान्यतौर पर कानून की अवहेलना या उल्लंघन मानो एक चलन या गर्व का विषय बन गया है। व्यक्ति का व्यवहार ‘क्या फर्क पड़ता है’ या ‘कौन देख रहा है’ के इर्दगिर्द ही रहता है। हम विकसित राष्ट्रों के समकक्ष जीवनशैली की अपेक्षा रखते हैं लेकिन स्वयं के व्यवहार में उस अनुशासन और प्रतिबद्धता को उतारने का प्रयास नहीं करते। आमतौर पर हम उस अवस्था को अवसर मन लेते हैं जब किसी बहाने से कानून का उल्लंघन किया जा सके और यदि उस उल्लंघन पर दृष्टि पड़ जाए तो फिर पहला प्रयास अपने रसूखात और प्रभाव का इस्तेमाल करते हुए उससे बरी होने का होता है। यह ही हमारी सबसे बड़ी कमजोरी है।
दुर्भाग्यवश प्रभावशाली व्यक्ति कानून के उल्लंघन करने वाले में अपराधबोध करवाने के स्थान पर उससे मुक्ति दिलाने का प्रयास करते हैं और अधिकांश मामलों में उसे प्रतिष्ठा का द्योतक बना लेते हैं। उल्लंघन करने वाले को किसी भी प्रकार से अपने किए पर प्रायश्चित भी नहीं होता। प्रभाव का उपयोग और तुरंत दंड की व्यवस्था नहीं होना ही हमें विकसित राष्ट्र होने में सबसे बड़ी बाधा के रूप में खड़ा है। विकसित राष्ट्रोंं के अनुरूप, यदि छोटी-छोटी अवहेलनाओं पर त्वरित दंड की व्यवस्था हो जाए तो संभवतया बड़े अपराधों पर भी रोक लग जाएगी। दुख तो तब अधिक होता है जब पढ़ा-लिखा युवा, जिस पर राष्ट्र निर्माण का दारोमदार है, नियम-कायदों के उल्लंघन में शान समझते हुए व्यवस्था को जीर्ण-शीर्ण कर देता है। व्यवस्था नागरिकों के सुगम जीवन के लिए स्थापित की जाती है, किंतु राष्ट्र के प्रति दायित्वबोध न होने से वह कुछ ही समय में अव्यवस्था का रूप ले लेती है। इस बार स्वाधीनता दिवस के अवसर पर यदि हम मूलभूत व्यवस्थाओं यथा यातायात नियम पालन, स्वच्छता, नियम सम्मत शहरीकरण, पानी के सदुपयोग जैसे कुछ संकल्प लें, उन्हें अपने जीवन में उतार लें तथा समस्त प्रभावशाली व्यक्ति कानून का उल्लंघन करने वालों का पक्ष नहीं लेने की शपथ ले लें तो देश को वास्तविक विकसित राष्ट्र बनने से कोई नहीं रोक पाएगा।
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