अपराजिता कानून को तीन भागों में बांटा जा सकता है। बलात्कार के चिह्नित अपराधों में सजा की वृद्धि, तेज गति से पुलिस अनुसंधान पूर्ण करना एवं तेज गति से कोर्ट में ट्रायल सुनिश्चित करना। बलात्कार के सभी प्रकरणों में प्राकृतिक मृत्यु होने तक आजीवन कारावास या मृत्यु दंड की सजा का प्रावधान किया गया है। अर्थात, अपराधी के सुधार के सभी विकल्प समाप्त कर बलात्कार के सभी प्रकरणों को एक ही श्रेणी में रखा गया है। धारा 66 के अंतर्गत यदि बलात्कार के पश्चात चोटों से पीड़ित की मृत्यु हो जाती है या उसकी स्थिति मृत्यु समान हो जाती है, तो ऐसे प्रकरणों में अपराजिता बिल में केवल मृत्यु-दंड का प्रावधान किया गया है। यद्यपि ऐसा अपराध अत्यंत संगीन श्रेणी का है, परंतु केवल मृत्यु-दंड का प्रावधान करना असंवैधानिक है।
याद होगा कि वर्ष 1983 में सुप्रीम कोर्ट ने आइपीसी की धारा 303 (आजीवन कारावास के दौरान हत्या करना) को इसलिए असंवैधानिक करार दिया था क्योंकि उसमें केवल एक ही सजा मृत्युदंड का प्रावधान था। सुप्रीम कोर्ट ने यह माना की सभी प्रकार के अपराधियों को समाज के लिए एक बराबर खतरनाक मानना युक्तियुक्त नहीं है। इसके अलावा न्यायालय के पास दंड देने के लिए कोई विकल्प न हो यह भी संविधान के प्रावधानों का उल्लंघन है। इसलिए भारतीय न्याय संहिता में आईपीसी की धारा 303 के बदले जो धारा 104 सम्मिलित की गई है उसमें पूर्व की कमी को दूर करते हुए, मृत्युदंड के साथ आजीवन कारावास का प्रावधान किया गया है। हालांकि नए कानून भारतीय न्याय संहिता के कुछ प्रावधानों में यह त्रुटि कुछ प्रावधानों में दोहराई गई है, अपराजिता कानून में भी ऐसा प्रावधान करना असंवैधानिक ही है। इसी प्रकार, एसिड हमले संबंधी धारा 124 में भी कोर्ट को कोई भी अतिरिक्त विकल्प न देते हुए केवल एक ही सजा आजीवन कारावास का प्रावधान कर उसे असंवैधानिक एवं चुनौती योग्य बना दिया गया है।
भारतीय न्याय संहिता में बलात्कार संबंधी अपराधों की विवेचना दो माह अर्थात 60 दिन के अंदर करने का प्रावधान है जो पहले आइपीसी में 90 दिन था। अपराजिता कानून में इसे और घटाकर 21 दिन कर दिया गया है जिसे पुलिस अधीक्षक की अनुशंसा पर 15 दिन और बढ़ाया जा सकता है। किसी भी अपराध में यदि मृत्यु-परंत आजीवन कारावास या मृत्यु-दंड जैसी कड़ी सजा का प्रावधान हो तो उसमें अपराधी को सजा दिलाने के लिए जरूरी है कि पुलिस विवेचना की गुणवत्ता उच्च कोटि की हो। अपराजिता कानून में डीएसपी की अगुवाई में एक स्पेशल ‘अपराजिता टास्क फोर्स’ बनाने एवं प्रस्तावित कानून की विवेचना यथासंभव महिला पुलिस अधिकारी द्वारा करने का भी प्रावधान किया गया है। बेहतर होगा कि अपराजिता टास्क फोर्स विवेचना की समय-सीमा में उतावलेपन में जांच पूरी करने की तुलना में, उसकी गुणवत्ता पर अधिक ध्यान दें। अपराजिता कानून में प्रकरण के पूरे ट्रायल अथवा जांच को आरोप-पत्र दायर करने के 30 दिन के अंदर पूरा करने का प्रावधान किया गया है जो पूर्व प्रसंगो को देखते हुए व्यावहारिक नहीं लगता।
यह बिल अपराध को जड़ को दूर करने के प्रयास करने की बजाय केवल लक्षणों को दूर करने का अव्यावहारिक प्रयास है। बलात्कार के प्रकरणों के संबंध में भारतीय न्याय संहिता एवं भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता में पूर्व से ही कड़े प्रावधान है। यद्यपि पुलिस की विवेचना में विलंब एवं लापरवाही न हो, और ट्रायल तेज गति से संपन्न हो, यह सुनिश्चित करना जरूरी है, परंतु केवल कानून में कड़े प्रावधान करने से इसका समाधान नहीं होगा। एक और जहां पूरे समाज को अपनी सोच बदलने एवं हिंसा को समाप्त करने की आवश्यकता है, वहीं दूसरी ओर जरूरी है कि पुलिस को अधिक संवेदनशील बनाया जाए, उन्हें लगातार प्रशिक्षित कर विवेचना की गुणवत्ता में सुधार किया जाए, तकनीकों का बेहतर उपयोग किया जाए, पुलिस की अधोसंरचना सुदृढ़ की जाए, महिला पुलिस अधिकारियों सहित विवेचकों की संख्या बढ़ाई जाए और सबसे महत्वपूर्ण, उन्हें राजनीति से दूर रखा जाए।
— आर.के. विज