उद्योगपति मुकेश अंबानी के घर ‘एंटीलिया’ के बाहर विस्फोटकों से भरी ‘एसयूवी’ मिलने और मुंबई के कारोबारी मनसुख हिरेन की संदिग्ध परिस्थितियों में मौत के बाद जिस तरह से रोज नए-नए खुलासे हो रहे हैं, वे उन्हीं किस्सों की नई कडिय़ां हैं। इसीलिए जब मुंबई के हटाए गए पुलिस कमिश्नर परमबीर सिंह की याचिका पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने पुलिस सुधार के लिए 2006 में दिए गए अपने ही फैसले को याद किया तो यह समझना आसान हो गया कि क्यों सरकारें पुलिस सुधार के उपायों को लागू नहीं करना चाहती हैं। परमबीर सिंह ने महाराष्ट्र के गृहमंत्री अनिल देशमुख की अवैध गतिविधियों की सीबीआइ से जांच कराने की मांग की थी।
सुप्रीम कोर्ट में जस्टिस एसके कौल की डिविजन बेंच ने कहा कि प्रकाश सिंह बनाम केंद्र सरकार मामले में पुलिस सुधार के लिए व्यापक दिशा-निर्देश दिए गए थे, लेकिन सरकारों ने उसे लागू करने में कोई गंभीरता नहीं दिखाई। हालांकि विभिन्न मौकों पर इन सुधारों का मंत्र की तरह जाप जरूर किया जाता रहा है। सुप्रीम कोर्ट के दिशा-निर्देशों में पुलिस को राजनीतिक और सरकारी दबाव से मुक्त रखने के पर्याप्त उपाय किए गए थे। अदालत का मानना था कि पुलिस के काम में बेवजह हस्तक्षेप करने से कोई बाज नहीं आना चाहता। शीर्ष अदालत का ऑब्जर्वेशन एकदम सच है। सरकार चाहे किसी भी दल की हो, पुलिस के कार्य में बेजा दखल देना अपना अधिकार समझती है। कोई राजनेता तब तक अपने को ताकतवर नहीं समझता, जब तक पुलिस उसके इशारे पर न नाचने लगे। यदि कोई पुलिस अफसर ऐसा नहीं होने देता, तो तुरंत उसका तबादला करा देना जैसे वह अपना अधिकार समझता है। अपनी पैठ के बूते अक्सर वह सफल हो जाता है, क्योंकि सरकार में बैठी पार्टी को अगले चुनाव में अपनी ताकत दिखानी होती है। यही वजह है कि पुलिस सुधार के तमाम उपाय गोल-गोल घूमकर हर बार वहीं पहुंच जाते हैं, जहां से शुरू किए गए थे। अब जब सुप्रीम कोर्ट यह समझ गया है, तो क्या हमें यह उम्मीद नहीं करनी चाहिए वह कुछ और सख्ती दिखाए और सरकारों को अपनी गाइडलाइन मानने के लिए बाध्य करे।