आरक्षण के लिए धर्म परिवर्तन पर बीते दिनों सुप्रीम कोर्ट का महत्त्वपूर्ण फैसला आया। सी. सेल्वरानी बनाम विशेष सचिव-सह जिला कलेक्टर के अपने फैसले में सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया कि केवल आरक्षण पाने के लिए किया गया धर्म परिवर्तन संविधान के साथ छल करने के बराबर है और उसकी अनुमति नहीं दी जा सकती। इसमें संविधान के अनुच्छेद 25 के अंतर्गत किए गए अपने पसंद की पूजा पद्धति को अपनाने तथा अनुच्छेद-16 (4) में अनुसूचित जाति को मिलने वाले आरक्षण और उसकी पात्रता के अंतर्सम्बंधों की विवेचना की गई। सी. सेल्वरानी का जन्म एक ईसाई पिता तथा संथानेरी मां के घर हुआ था। जब वह शिशु थी तभी उनका बपतिस्मा कर दिया गया था। किंतु सेल्वरानी का दावा था कि विवाह के बाद उनकी माता ने हिंदू धर्म अपना लिया था और चूंकि मूलत: वे लोग वल्लुवन जाति से संबंधित थे। अत: पुड्डुचेरी में अनुसूचित जाति मानते हुए उसका प्रमाण पत्र जारी किया जाना चाहिए। जाति प्रमाण पत्र जारी करने वाले अधिकारियों का कहना था कि उनका परिवार ईसाई धर्म को मानता है इसलिए उन्हें संविधान (पुड्डुचेरी) अनुसूचित जाति आदेश 1964 के अंतर्गत अनुसूचित जाति का प्रमाण पत्र नहीं दिया जा सकता। सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया कि संविधान के अनुच्छेद-25 में हर व्यक्ति को अपने पसंद की पूजा पद्धति अपनाने का अधिकार है। इस अधिकार का उपयोग करते हुए कोई भी व्यक्ति नया धर्म अपना सकता है या अपने पुराने धर्म में वापसी कर सकता है। किंतु जब धर्म परिवर्तन का उद्देश्य यह हो कि उसे वंचित समाज को मिलने वाले आरक्षण का लाभ भी मिले तो ऐसी परिस्थिति में न्याय की मांग यह है कि इससे जुड़े अन्य पहलुओं पर भी विचार अवश्य होना चाहिए।
वंचित समुदाय को दिया जाने वाले आरक्षण का संबंध उनके सामाजिक वंचना की पृष्ठभूमि से जुड़ी हुई है। यह सामाजिक रूप से वंचित समुदाय को आगे लाकर शेष लोगों के बराबर लाने के उद्देश्य से दिया जाता है। अदालत ने कहा कि दूसरे धर्म में परिवर्तन करने से आमतौर पर व्यक्ति के मूल जाति की स्थिति समाप्त हो जाती है। ईसाई धर्म चूंकि जाति व्यवस्था को मान्यता नहीं देता, इसलिए ईसाई होने के बाद सी. सेल्वरानी की जातीय पहचान समाप्त हो गई। अदालत के सामने एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न यह भी था कि क्या कोई व्यक्ति अपने पुराने धर्म में वापसी कर सकता है और इसी से जुड़ा हुआ यह भी कि अपने पुराने धर्म में वापसी के बाद क्या उसे उसी जाति का सदस्य माना जा सकेगा जिसका कि वह हिंदू धर्म छोडऩे के पहले था। पहले प्रश्न का उत्तर देते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि चूंकि हर व्यक्ति को किसी भी धर्म को मानने का अधिकार है, अत: उसे उस धर्म को भी पुन: अपनाने का अधिकार है जिसको छोड़कर उसने किसी दूसरे धर्म को अपना लिया था। किंतु वापस अपने धर्म में आने पर वह स्वत: ही अपनी जाति का सदस्य नहीं मान लिया जाएगा। सर्वोच्च न्यायालय ने पहले भी इस विषय पर विचार किया था कि घर वापसी के बाद किसी व्यक्ति को अपनी पुरानी जाति का हिस्सा माना जाएगा या नहीं। सी.एम. अरुमुगम बनाम एस. राजगोपाल (1975) ने सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था कि यह इस बात पर निर्भर करेगा कि वापस हिंदू धर्म अपनाने पर क्या उसकी जाति के लोगों ने उसे अपना लिया है। यदि उसकी जाति के लोगों ने अपना लिया है तो उसे अपनी पुरानी जाति का हिस्सा माना जा सकेगा।
इसी तरह का प्रश्न प्रिंसिपल गुण्टूर मेडिकल कॉलेज बनाम वाई. मोहन राव (1976) के मुकदमे में भी उठा था। इसमें भी सर्वोच्च न्यायालय ने अपने पुराने मत की पुष्टि करते हुए कहा था कि अपनी पुरानी जाति द्वारा स्वीकार किए जाने का पर्याप्त साक्ष्य होने पर ही वापस पुरानी जाति का हिस्सा माना जा सकता है। सी. सेल्वरानी के मौजूद मामले में उन्हें यह साबित करना था कि हिंदू धर्म में वापसी का उसका आशय रहा हो, उसके वापस आने पर उसके समुदाय द्वारा उसके मूल जाति द्वारा अपना लिया गया हो तथा उसका हिंदू प्रथाओं को अपनाने का ईमानदार आशय रहा हो। अदालत के सामने रखे गए साक्ष्यों से स्पष्ट था कि उसका बपतिस्मा करके उसके माता-पिता के विवाह का पंजीकरण ईसाई कानून के अंतर्गत किया गया था तथा उसे जानने वालों के बयानों से भी इस तथ्य की पुष्टि हुई थी कि सी. सेल्वरानी नियमित रूप से ईसाई धर्म की परम्पराओं का पालन करती थी, इसलिए उसके पुन: हिंदू धर्म अपनाने के दावे को अस्वीकार कर दिया गया। आरक्षण के आकर्षण तथा सामाजिक जटिलताओं के बढऩे के साथ सी. सेल्वरानी जैसे मामलों की संख्या में आगे और भी वृद्धि होगी। ऐसे में ‘घर वापसी पर पुराने समुदाय द्वारा अपनाए जाने’ के आधार पर पुराने समुदाय का हिस्सा मानने का सिद्धांत लंबे समय तक प्रभावी नहीं रह पाएगा क्योंकि पहले भी अदालत को इस सिद्धांत से पीछे हटना पड़ा है।
जहांआरा जयपाल सिंह (1972) के मुकदमे में इससे मिलती-जुलती जटिलता थी। जहांआरा एक गैर आदिवासी महिला थी किंतु उनकी शादी मुंडा आदिवासी पुरुष से हुई थी। उनके विवाह के समय और उसके बाद आदिवासी समुदाय द्वारा उसे स्वीकृति दी गई थी, इस आधार पर उन्हें आदिवासी समुदाय को मिलने वाले आरक्षण का पात्र माना गया किंतु बाद में इसके दुष्प्रभाव सामने आने लगे। लोग अनुसूचित जाति या अन्य पिछड़े वर्ग विवाह के आधार पर आरक्षण का दावा करने लगे। न्यायहित में सुप्रीम कोर्ट को पुराने सिद्धांत में परिवर्तन करना पड़ा और शोभा हिमावती देवी बनाम गंगाधर स्वामी (2005) तथा सुनीता सिंह बनाम उत्तर प्रदेश (2018) जैसे मुकदमे मे सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया कि जाति का निर्धारण जन्म के आधार पर ही होगा तथा अनारक्षित वर्ग का व्यक्ति यदि आरक्षित वर्ग के व्यक्ति से विवाह कर लेता है तो उस समुदाय की स्वीकृति के बाद भी आरक्षण का लाभ नहीं मिल सकेगा। इन परिस्थितियों में समय का तकाजा यह है कि इस तरह के मामलों के लिए केंद्रीय स्तर पर स्पष्ट कानून बना दिया जाए।
वंचित समुदाय को दिया जाने वाले आरक्षण का संबंध उनके सामाजिक वंचना की पृष्ठभूमि से जुड़ी हुई है। यह सामाजिक रूप से वंचित समुदाय को आगे लाकर शेष लोगों के बराबर लाने के उद्देश्य से दिया जाता है। अदालत ने कहा कि दूसरे धर्म में परिवर्तन करने से आमतौर पर व्यक्ति के मूल जाति की स्थिति समाप्त हो जाती है। ईसाई धर्म चूंकि जाति व्यवस्था को मान्यता नहीं देता, इसलिए ईसाई होने के बाद सी. सेल्वरानी की जातीय पहचान समाप्त हो गई। अदालत के सामने एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न यह भी था कि क्या कोई व्यक्ति अपने पुराने धर्म में वापसी कर सकता है और इसी से जुड़ा हुआ यह भी कि अपने पुराने धर्म में वापसी के बाद क्या उसे उसी जाति का सदस्य माना जा सकेगा जिसका कि वह हिंदू धर्म छोडऩे के पहले था। पहले प्रश्न का उत्तर देते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि चूंकि हर व्यक्ति को किसी भी धर्म को मानने का अधिकार है, अत: उसे उस धर्म को भी पुन: अपनाने का अधिकार है जिसको छोड़कर उसने किसी दूसरे धर्म को अपना लिया था। किंतु वापस अपने धर्म में आने पर वह स्वत: ही अपनी जाति का सदस्य नहीं मान लिया जाएगा। सर्वोच्च न्यायालय ने पहले भी इस विषय पर विचार किया था कि घर वापसी के बाद किसी व्यक्ति को अपनी पुरानी जाति का हिस्सा माना जाएगा या नहीं। सी.एम. अरुमुगम बनाम एस. राजगोपाल (1975) ने सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था कि यह इस बात पर निर्भर करेगा कि वापस हिंदू धर्म अपनाने पर क्या उसकी जाति के लोगों ने उसे अपना लिया है। यदि उसकी जाति के लोगों ने अपना लिया है तो उसे अपनी पुरानी जाति का हिस्सा माना जा सकेगा।
इसी तरह का प्रश्न प्रिंसिपल गुण्टूर मेडिकल कॉलेज बनाम वाई. मोहन राव (1976) के मुकदमे में भी उठा था। इसमें भी सर्वोच्च न्यायालय ने अपने पुराने मत की पुष्टि करते हुए कहा था कि अपनी पुरानी जाति द्वारा स्वीकार किए जाने का पर्याप्त साक्ष्य होने पर ही वापस पुरानी जाति का हिस्सा माना जा सकता है। सी. सेल्वरानी के मौजूद मामले में उन्हें यह साबित करना था कि हिंदू धर्म में वापसी का उसका आशय रहा हो, उसके वापस आने पर उसके समुदाय द्वारा उसके मूल जाति द्वारा अपना लिया गया हो तथा उसका हिंदू प्रथाओं को अपनाने का ईमानदार आशय रहा हो। अदालत के सामने रखे गए साक्ष्यों से स्पष्ट था कि उसका बपतिस्मा करके उसके माता-पिता के विवाह का पंजीकरण ईसाई कानून के अंतर्गत किया गया था तथा उसे जानने वालों के बयानों से भी इस तथ्य की पुष्टि हुई थी कि सी. सेल्वरानी नियमित रूप से ईसाई धर्म की परम्पराओं का पालन करती थी, इसलिए उसके पुन: हिंदू धर्म अपनाने के दावे को अस्वीकार कर दिया गया। आरक्षण के आकर्षण तथा सामाजिक जटिलताओं के बढऩे के साथ सी. सेल्वरानी जैसे मामलों की संख्या में आगे और भी वृद्धि होगी। ऐसे में ‘घर वापसी पर पुराने समुदाय द्वारा अपनाए जाने’ के आधार पर पुराने समुदाय का हिस्सा मानने का सिद्धांत लंबे समय तक प्रभावी नहीं रह पाएगा क्योंकि पहले भी अदालत को इस सिद्धांत से पीछे हटना पड़ा है।
जहांआरा जयपाल सिंह (1972) के मुकदमे में इससे मिलती-जुलती जटिलता थी। जहांआरा एक गैर आदिवासी महिला थी किंतु उनकी शादी मुंडा आदिवासी पुरुष से हुई थी। उनके विवाह के समय और उसके बाद आदिवासी समुदाय द्वारा उसे स्वीकृति दी गई थी, इस आधार पर उन्हें आदिवासी समुदाय को मिलने वाले आरक्षण का पात्र माना गया किंतु बाद में इसके दुष्प्रभाव सामने आने लगे। लोग अनुसूचित जाति या अन्य पिछड़े वर्ग विवाह के आधार पर आरक्षण का दावा करने लगे। न्यायहित में सुप्रीम कोर्ट को पुराने सिद्धांत में परिवर्तन करना पड़ा और शोभा हिमावती देवी बनाम गंगाधर स्वामी (2005) तथा सुनीता सिंह बनाम उत्तर प्रदेश (2018) जैसे मुकदमे मे सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया कि जाति का निर्धारण जन्म के आधार पर ही होगा तथा अनारक्षित वर्ग का व्यक्ति यदि आरक्षित वर्ग के व्यक्ति से विवाह कर लेता है तो उस समुदाय की स्वीकृति के बाद भी आरक्षण का लाभ नहीं मिल सकेगा। इन परिस्थितियों में समय का तकाजा यह है कि इस तरह के मामलों के लिए केंद्रीय स्तर पर स्पष्ट कानून बना दिया जाए।