बिहार में गंगा नदी पर बन रहे इस पुल का निर्माण 2014 में शुरू हुआ था और इसे 2019 में ही पूरा हो जाना था। देश का दुर्भाग्य यही है कि हादसे में अगर किसी की जान चली जाए तो हाय-तौबा मच जाती है, अन्यथा ऐसे हादसों पर चर्चा तक नहीं होती। राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोपों को दरकिनार कर दिया जाए, तो ऐसे हादसे कमोबेश हर राज्य में और हर दल की सरकार के कार्यकाल में होते रहते हैं। विकसित देशों में भी ऐसे हादसे होते हैं, लेकिन अंतर यह है कि भारत में ऐसे हादसों से सबक नहीं लिया जाता। यह प्रवृत्ति दुर्भाग्यपूर्ण है। बड़ी समस्या यह है कि पुल या दूसरे निर्माणों के लिए रखे गए बजट का बड़ा हिस्सा कमीशनखोरी की भेंट चढ़ जाता है। इसका सीधा असर निर्माण की गुणवत्ता पर पड़ता है।
निर्माण घटिया होगा तो फिर उसके धराशायी होने की आशंका भी बनी रहती है। हादसों का एक बड़ा कारण जांच में दोषी और जिम्मेदार ठहराए गए अधिकारियों-ठेकेदारों के खिलाफ सख्त कार्रवाई का न होना भी है। मोरबी हादसे के दोषियों को बचाने के प्रयास भी सबके सामने हुए हैं। हर हादसे के बाद लीपापोती के प्रयास खूब होते हैं। हादसे में मरने वालों के परिजनों को मुआवजा बांटकर ही अपनी जिम्मेदारी पूरी समझने वाली सरकारों को इससे आगे बढ़ना होगा।
निर्माण कार्यों की गुणवत्ता पर निगरानी रखने की पारदर्शी नीति बनाने के साथ उस पर अमल भी जरूरी है। हादसों की जांच से काम नहीं चलने वाला। ऐसे निर्माण कार्यों में कमीशनखोरी रोकने पर खास ध्यान देने की आवश्यकता है, क्योंकि जब ठेकेदार एक बड़ी राशि कमीशन के तौर पर दे देता है, तो फिर वह निर्माण कार्य की गुणवत्ता बनाए रखने के प्रति लापरवाह हो जाता है। लापरवाही की परिणति ऐसे हादसों के रूप में सामने आती है।