दिल्ली-एनसीआर और पड़ोसी क्षेत्र सर्दियों के दौरान विश्व के सबसे खराब वायु गुणवत्ता स्तरों का सामना करते हैं। इन इलाकों में वाहन उत्सर्जन, औद्योगिक अपशिष्ट, धूल और कृषि कचरे के जलने के संयोजन से खतरनाक वायु प्रदूषण उत्पन्न होता है। जैसे-जैसे तापमान गिरता है, स्मॉग बनती है, जो गंभीर स्वास्थ्य जोखिम पैदा करती है।
डॉ. राजीव महाजन
सदस्य, अध्ययन समूह, जलवायु सेवा प्रभाग-तकनीकी आयोग, विश्व मौसम संगठन, संयुक्त राष्ट्र क्या जलवायु-स्वास्थ्य गवर्नेंस में कोई नीतिगत खामियां हैं? पहली नजर में, यह सवाल असामान्य लग सकता है, यहां तक कि स्वास्थ्य और जलवायु जैसे दो महत्त्वपूर्ण क्षेत्रों में काम करने वाले पेशेवरों के लिए भी। हालांकि, दिल्ली-एनसीआर क्षेत्र में गंभीर वायु प्रदूषण, विशेषकर सर्दियों के महीनों में, इस सवाल को अत्यावश्यक बना देता है।
यह महत्त्वपूर्ण सवाल है कि बढ़ते वायु गुणवत्ता संकट के बीच जलवायु संबंधी जानकारी स्वास्थ्य से जुड़े निर्णय लेने में कैसे मदद कर सकती है? जलवायु सेवाएं जलवायु संबंधी ऐसी महत्त्वपूर्ण जानकारी प्रदान करती हैं, जो निर्णय लेने में मदद करती हैं। ये सेवाएं डेटा, पूर्वानुमान और शोध का उपयोग कर मौसम के पैटर्न और जलवायु संबंधी जोखिमों की भविष्यवाणी करती हैं, जिससे कृषि, स्वास्थ्य, जल, ऊर्जा और आपदा प्रबंधन जैसे क्षेत्रों में सहायता मिलती है। पर्यावरण संरक्षण की नीतियों को लागू करने से मानव स्वास्थ्य को सुधारने में भी मदद मिलती है। उदाहरण के लिए, वायु प्रदूषण को कम करना न केवल जलवायु परिवर्तन को कम करता है, बल्कि श्वास संबंधी बीमारियों की रोकथाम में भी मददगार है। इससे मानव स्वास्थ्य में सुधार होता है।
दिल्ली-एनसीआर और पड़ोसी क्षेत्र सर्दियों के दौरान विश्व के सबसे खराब वायु गुणवत्ता स्तरों का सामना करते हैं। इन इलाकों में वाहन उत्सर्जन, औद्योगिक अपशिष्ट, धूल और कृषि कचरे के जलने के संयोजन से खतरनाक वायु प्रदूषण उत्पन्न होता है। जैसे-जैसे तापमान गिरता है, स्मॉग बनती है, जो गंभीर स्वास्थ्य जोखिम पैदा करती है। अध्ययन दर्शाते हैं कि पार्टिकुलेट मैटर (पीएम 2.5) के संपर्क में आना श्वसन रोग, हृदय रोग और मृत्यु दर में वृद्धि का कारण बन सकता है। इस सर्दी के दौरान बिगड़ती वायु गुणवत्ता का विशेष रूप से बच्चों और बुजुर्गों जैसे संवेदनशील समूहों पर विनाशकारी प्रभाव पडऩे की आशंका रहती है। वर्तमान संकट न केवल तत्काल स्वास्थ्य को खतरे में डालता है, बल्कि एक ऐसी स्वास्थ्य प्रणाली पर भारी दबाव भी डालता है, जो पहले से ही संसाधनों की सीमाओं से जूझ रही है। आइपीसीसी की ग्लोबल वॉर्मिंग पर विशेष रिपोर्ट में कहा गया है कि एशिया में गरीब आबादी जलवायु से संबंधित जोखिमों के प्रति विशेष रूप से संवेदनशील है। भारत को हीटवेव, बाढ़, और अब खतरनाक वायु प्रदूषण जैसे बड़े खतरों का सामना करना पड़ रहा है। सर्दियों के दौरान दिल्ली में स्मॉग से संबंधित बीमारियों में वृद्धि से मौजूदा स्वास्थ्य संकट और गंभीर हो जाता है।
कोविड-19 महामारी ने बड़े पैमाने पर खतरों को प्रबंधित करने में कमजोरियों को उजागर किया और सार्वजनिक स्वास्थ्य से जुड़ी नीतियों में वायु गुणवत्ता निगरानी को शामिल करने के महत्त्व को रेखांकित किया। वैज्ञानिक इस तथ्य को पुष्ट करते हैं कि सार्वजनिक स्वास्थ्य मौसम में बदलावों के प्रति संवेदनशील है, इसलिए वायु गुणवत्ता जैसे मुद्दों का समाधान अपरिहार्य हो जाता है। हालांकि विश्व मौसम विज्ञान संगठन का ग्लोबल फ्रेमवर्क फॉर क्लाइमेट सर्विसेज दीर्घकालिक जलवायु पूर्वानुमानों पर केंद्रित है, लेकिन स्वास्थ्य योजना में रियल-टाइम वायु गुणवत्ता डेटा को शामिल करना महत्त्वपूर्ण है। भारत को जलवायु सेवाओं का उपयोग कर तत्काल खतरों, जैसे खराब वायु गुणवत्ता के बारे में शुरुआती चेतावनी प्रदान करनी चाहिए, जिससे संवेदनशील आबादी की सुरक्षा के लिए सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली को मजबूत करने पर भी ध्यान दिया जा सके। भारत ने राष्ट्रीय स्वच्छ वायु कार्यक्रम जैसी वायु गुणवत्ता में सुधार लाने वाली नीतियों के मामले में प्रगति की है। राज्य-स्तरीय पहल के साथ भारतीय मौसम विज्ञान विभाग का क्लाइमेट इंफो फॉर हेल्थ तापमान और वेक्टर-जनित रोगों के लिए पूर्वानुमान प्रदान करता है। हालांकि, राष्ट्रीय स्तर पर स्वास्थ्य और जलवायु क्षेत्रों के बीच तालमेल अब भी अपर्याप्त है। भारत में जलवायु संरक्षण और स्वास्थ्य दोनों के लिए बेहतर नीतियां बनाने की आवश्यकता है। हमें भारतीय सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली को जलवायु-संवेदनशील बनाने के साथ एक सुरक्षित भविष्य सुनिश्चित करने के लिए निर्णायक कदम उठाने होंगे।
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