पूरब के सनातनी मन और आधुनिक भौतिकवादी जीवन के बीच द्वंद्व नया नहीं है, तो ठगनी माया के मोह जाल से निकल कर मोक्ष पाने की मानव की चाह भी नई नहीं है। भौतिक सुख-सुविधाओं को त्यागे बिना भी क्या कोई मोक्ष की अवस्था प्राप्त कर सकता है और क्या चिकित्सा विज्ञान और आस्था के बीच कोई सेतु बन सकता है? ऐसे कठिन सवालों के सहज, सरल मगर अधिकृत जवाब स्नायुतंत्र चिकित्सा विज्ञान में निष्णात चिकित्सक डॉ. अशोक पानगड़िया की सद्य प्रकाशित पुस्तक ‘मोंक इन अ मर्स’ (साधु बैठा मर्सडीज में) में मिलते हैं। पश्चिमी विज्ञान के जरिए मस्तिष्क, दिमाग और स्नायुतंत्र की कार्यपद्धति से परिचय कराने के साथ ही पूरब के आध्यात्मिक गूढ़ रहस्यों को उद्घाटित करने वाली ब्लूम्सबरी से प्रकाशित यह पुस्तक हमें थमा कर इसका लेखक हाल ही हम से जुदा हो गया।
जीवन और मृत्यु के बीच की रेखा को क्या चिकित्सक इधर-उधर खिसका सकता है या कुछ ऐसा होता है जो अज्ञेय है? इसका जवाब भी डॉ. पानगडिय़ा इस पुस्तक में देते हैं। यह एक ऐसे चिकित्सक का आत्मकथ्य है, जो स्नायुतंत्र के विज्ञान में ही निष्णात नहीं था, बल्कि जिसमें आस्था का योग भी था, जो यह कह सका कि डॉक्टर अपने वैज्ञानिक निदान से रोगी का इलाज करता है और ईश्वर उसे स्वस्थ करता है। हजारों वर्षों से लगातार विकसित हो रही मस्तिष्क की संरचना और उसमें होने वाली रासायनिक क्रियाओं की लेखक को गहन वैज्ञानिक जानकारी है। साथ ही उसने ज्योतिष शास्त्र व तंत्र विधान का भी गहरा अध्ययन किया है। पुस्तक से पाठक यह भी जान पाता है कि पद और यश की ऊंचाइयों को छूने वाले इस चिकित्सक ने स्नायुतंत्र विज्ञान तथा वैदिक ज्योतिष का समानांतर अध्ययन अपने सम्पूर्ण चिकित्सकीय जीवन में जारी रखा, जिसके अनूठे उदाहरण इस पुस्तक को दिलचस्प और पठनीय बना देते हैं। लेखक जब अत्यंत सरल तरीके से मस्तिष्क की संरचना और उसके कारोबार को शिक्षक की भांति समझाते हुए समूचे जीव जगत के जैविक विकास की कहानी कहता है, तो लगता है यह एक ऐसा मनीषी बोल रहा है जो मंदिर में गए बगैर भी धार्मिक हो गया हो।
मोक्ष को एक प्रतीक बताते हुए डॉ. पानगडिय़ा ने बड़ी खूबसूरत बात कही कि ‘वह न तो वह कोई स्थान है और न वह कोई अनुभव है। वह एक स्थिति है। कर्म और भाग्य में सामंजस्य हो जाए, तो मोक्ष या मुक्ति की स्थिति में मानव मन पहुंच सकता है। कोई भी प्रयत्न करके मस्तिष्क को इसमें प्रशिक्षित कर सकता है।’ एक प्रकार से यह किताब पाठक को यह विश्वास देती है कि ‘आप भी कर सकते हैं’। विज्ञान का रहस्यवाद से तार जोड़ते हुए दवाओं से मरीजों के इलाज में आस्था के बल का विलक्षण समन्वय भी इस पुस्तक में उपस्थित है। प्रकृति में लीन होने से पहले डॉ. पानगडिय़ा हमें एक ऐसा ग्रंथ दे गए, जो आने वाली पीढिय़ों को भी राह दिखाता रहेगा कि जीवन को आनंद से जीने योग्य कैसे बनाया जाए और उसे उन ऊंचाइयों तक कैसे पहुंचाया जाए, जहां भौतिकता और आध्यात्मिकता के बीच की रेखा मिट जाए। डॉ. पानगडिय़ा के इलाज से जिन मरीजों को जीवन दान मिला, वे उन्हें अपने शेष जीवन तक याद रखें न रखें, किंतु यह पुस्तक उनके नाम को जरूर अमर रखेगी।