पहले विश्वयुद्ध में गंगा सिंह ने ‘बीकानेर कैमल कॉर्प्स’ के प्रधान के रूप में फिलिस्तीन, मिस्र और फ्रांस के युद्धों में सक्रिय भूमिका निभाई। 1902 में वे प्रिंस ऑफ वेल्स और 1910 में किंग जॉर्ज पंचम के ए.डी.सी. भी रहे। युद्ध के बाद रियासत लौट कर उन्होंने प्रशासनिक सुधारों और विकास के लिए कई असाधारण कार्य किए, जैसे 1913 में निर्वाचित जन-प्रतिनिधि सभा का गठन किया और 1922 में उच्च-न्यायालय स्थापित किया। बाल-विवाह रोकने के लिए शारदा एक्ट कड़ाई से लागू किया। 1924 में ‘लीग ऑफ नेशंस’ के पांचवें अधिवेशन में प्रतिनिधित्व किया। वह बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के संरक्षक, बॉम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसाइटी लंदन की इंडियन सोसाइटी, मेयो कॉलेज, अजमेर की जनरल काउंसिल जैसी संस्थाओं के सदस्य और इंडियन रेड क्रॉस सोसाइटी के पहले सदस्य थे।
उन्होंने 1899-1900 के बीच पड़े कुख्यात ‘छप्पनिया काल’ की हृदय-विदारक विभीषिका देखी थी और अपनी रियासत के लिए पानी का इंतजाम एक स्थायी समाधान के रूप में करने का संकल्प लिया था। पंजाब की सतलुज नदी का पानी ‘गंग-केनाल’ के जरिये बीकानेर तक लाना और नहरी सिंचित-क्षेत्र में किसानों को खेती करने और बसने के लिए मुफ्त जमीनें देना उनका सबसे क्रांतिकारी और दूरदृष्टिवान कार्य था। श्रीगंगानगर शहर के विकास को भी उन्होंने प्राथमिकता दी, बीकानेर में ‘लालगढ़ पैलेस’ बनवाया। बीकानेर को जोधपुर से जोड़ते हुए रेलवे के विकास और बिजली लाने की दिशा में भी वे बहुत सक्रिय रहे। 1933 में लोक देवता रामदेवजी की समाधि पर एक पक्के मंदिर के निर्माण का श्रेय भी उन्हीं को जाता है। उनकी मृत्यु 2 फरवरी 1943 को बम्बई में हुई थी।
1880 से 1943 तक उन्हें 14 से ज्यादा सैन्य-सम्मानों के अलावा 1900 में ‘केसरेहिंद’ की उपाधि से विभूषित किया गया था। 1918 में पहली बार 19 तोपों की सलामी दी गई, वहीं 1921 में दो साल बाद उन्हें अंग्रेजी शासन की ओर से स्थायी तौर पर 19 तोपों की सलामी योग्य शासक स्वीकार किया गया था।