बिना कष्ट सहे फल प्राप्त नहीं किए जा सकते। यह बात जितनी जिम में सही है, उतनी ही कूटनीति में भी। ऑस्ट्रेलिया-यूनाइटेड किंगडम-यूनाइटेड स्टेट्स (ऑकस) संधि के तहत ऑस्ट्रेलिया के साथ परमाणु पनडुब्बी तकनीक साझा करने का समझौते कर अमरीका ने बहुत कुछ हासिल किया है। लेकिन इसकी कीमत भी चुकानी पड़ी है: फ्रांस पीठ में छुरा घोंपने का आरोप लगा रहा है। ऑस्ट्रेलिया को डीजल पनडुब्बी बेचने का अरबों डॉलर का समझौता खत्म होने से फ्रांस गुस्से में है और कैनबरा और वॉशिंगटन से (लेकिन लंदन नहीं) अपने राजदूत वापस बुला चुका है। क्या इसकी जरूरत थी? हां। क्या इससे बेहतर तरीके से निपटा जा सकता था? हां।
दरअसल, ऑकस एक ‘बहुत बड़े पैमाने की डील’ है, जिसकी बात डॉनल्ड ट्रंप ने भी की थी और बराक ओबामा ने भी। दस साल पहले ओबामा ने 2500 यूएस मरीन ऑस्ट्रेलिया भेजे थे, पर यदि निकट भविष्य में प्रशांत क्षेत्र की खामोश गहराइयों में आठ ऑस्ट्रेलियाई परमाणु पनडुब्बी पेट्रोलिंग करती हैं, तो तुलना बेमानी है। चीन सतह के जहाजों, जिनमें अमरीकी एयरक्राफ्ट वाहक भी हैं, को निशाना बनाने के लिए क्रूज और बैलिस्टिक मिसाइलें विकसित कर रहा है, लेकिन पेंटागन की रिपोर्ट के अनुसार, ‘चीन पानी के अंदर गहराई में एंटी-सबमरीन युद्धक क्षमता हासिल करने से अभी भी दूर है।’
ऑकस संधि के बाद रॉयल ऑस्ट्रेलियन नेवी, ब्रिटिश और अमरीकी नौसैन्य बेड़े के साथ अपनी इस कमी को भी दूर करने में सक्षम होगी। अमरीका पहले से 68 और ब्रिटेन 11 परमाणु पनडुब्बी का संचालन कर रहा है। ऑस्ट्रेलिया की परमाणु पनडुब्बी तैयार होने के साथ क्षेत्र के समुद्री मार्गों पर चीन का दबदबा भी कम होगा और ताइवान के क्षेत्र में उसकी घुसपैठ भी कम होगी। 20 डीजल पनडुब्बी वाला जापान भी यदि परमाणु पनडुब्बी विकसित कर लेता है तो नौसैन्य शक्ति संतुलन का झुकाव क्षेत्र में चीन के खिलाफ और बढ़ जाएगा। लेकिन यह तथ्य भी गौर करने लायक है कि ऑस्ट्रेलिया की पहली परमाणु पनडुब्बी 2040 से पहले तैयार नहीं हो पाएगी। जाहिर है कि कार्यक्रम को तेज रफ्तार देने की जरूरत है।
चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग क्षेत्र में रणनीतिक दृष्टि से उठाए गए इस महत्त्वपूर्ण कदम के लिए किसी और को नहीं, बल्कि खुद को ही दोषी ठहरा सकते हैं। चीन के साम्राज्यवादी क्षेत्रीय दावों, घोर मानवाधिकार हनन और पाशविक ‘वुल्फ वॉरियर’ कूटनीति ने ही इसके पड़ोसियों को चेत जाने को मजबूर किया है जिसने अमरीका के लिए यह रणनीतिक रास्ता खोला है। इसी के चलते राष्ट्रपति बाइडन चीन को काबू में करने के लिए एक नए गठबंधन को अमल में ला पाए हैं। इस सप्ताह क्वाड में शामिल राष्ट्र वॉशिंगटन में मिलेंगे। ऑकस और क्वाड, दोनों ही 21वीं सदी में अमरीका की बहुत महत्त्वपूर्ण रणनीतिक पहल रही हैं और अफगानिस्तान से वापसी के बाद अमरीका को लेकर उठने वाले सवालों का जवाब देने में ये दोनों ही मंच मददगार साबित होंगे। ऑकस को लेकर चीन जितना नाराज यदि कोई देश है तो वह है फ्रांस। यह सही है कि फ्रांस को अनावश्यक रूप से इस डील से दूर रखा गया। बाइडन प्रशासन की यह कूटनीतिक गलती है कि उसने फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों को पहले से इस बारे में अवगत नहीं कराया। इसे ऑस्ट्रेलिया की जिम्मेदारी बताकर पल्ला झाडऩे का कोई औचित्य नहीं है। इसकी उम्मीद ‘अमेरिका फस्र्ट’ टीम से तो की जा सकती थी, लेकिन ‘अमेरिका इज बैक’ टीम से तो बेहतर की उम्मीद है।
(द वाशिंगटन पोस्ट से विशेष अनुबंध के तहत)