अतीक से भी भयंकर था इनका टेरर, इनके आने की खबर से ही खाली हो जाते थे गांव

– 22 साल बाद अपने गांव वापस लौटा एक व्यक्ति पर, आज भी इनके खौफ से वापस नहीं आया पूरा परिवार

Apr 25, 2023 / 01:26 pm

दीपेश तिवारी

भोपाल। यूपी के गैंगस्टर अतीक अहमद भले ही इन दिनों विशेष चर्चा में बना हुआ हो, लेकिन मध्य प्रदेश में चंबल के बीहडों में अतीक से भी कई गुना ज्यादा दुर्दांत लोगों का बसेरा रहा है। अतीक का खौफ जहां मुख्य रूप से रंगबाजी से लेकर वसूली तक में सीमित रहा, जिसके चलते लोग उसकी हां में हां मिलाते थे। वहीं चंबल के बीहडों में आतंक का प्रयाय रहे गडरिया गैंग का खौफ अतीक से कही अधिक भीषण था। इनकी स्थिति ये थी कि उनके आने की खबर तक से गांव के गांव खाली हो जाते थे। अतीक की चर्चाओं के बीच आज हम आपको आतंक के उन प्रयायों के बारे में बता रहे हैं, जो एक समय आतंक के मामले में अतीक से इतने आगे थे जिनके समीप तक अतीक कहीं टिकता नहीं दिखता। दरअसल हम बात कर रहे हैं चंबल के दो भाइयों की जिन्हें गडरिया गैंग के नाम से जाना जाता था…
पुलिस के लिए गैंग टी 1 –
मुख्य रूप से दोनों भाइयों (दयाराम-बाबूराम गड़रिया गैंग) के इस गैंग को मध्य प्रदेश पुलिस तक गैंग टी1 – टारगेट वन – नाम से बुलाती थी। कई सालों तक गडरिया बंधु चंबल की अवैध परंपरा को निभाने वाले डकैत गिरोहों में से एक रहें। ग्वालियर के भंवरपुरा में 13 गुर्जरों के नरसंहार ने इस खूंखार समूह को फिर से सुर्खियों में ला दिया था।

गोपनीय गिरोह
आधिकारिक तौर पर रामबाबू और दयाराम गडरिया गिरोह के रूप में जाने जाते हैं, वे कई साल तक पुलिस से बचते रहें। यह गिरोह इतना गोपनीय था कि पुलिस को पक्का पता नहीं था कि उनकी संख्या क्या थी।

इनके साथ मिलकर किया गिरोह लाॅन्च
1997 के बाद से गडरिया बंधुओं ने बैंक कर्मचारियों, स्कूल शिक्षकों, इंजीनियरों, किसानों का अपहरण कर लिया और 2 करोड़ रुपये से अधिक की फिरौती वसूल की। गिरोह की स्थापना इससे कई साल पहले रघुबीर गडरिया ने की थी, जब उनकी पत्नी ने उन्हें ग्वालियर में डबरा के पास किसी अन्य व्यक्ति के लिए छोड़ दिया था। रघुबर ने अपनी पत्नी और उसके प्रेमी को मार डाला और गिरोह को अपने भतीजे रामबाबू, दयाराम, विजय, प्रताप और गोपाल के साथ लॉन्च किया।

पुलिस का झुठा दावा
12 दिसंबर 1999 को रघुबीर गडरिया और उसके तीन साथी पुलिस मुठभेड़ में मारे गए थे। पुलिस में तक इनका इतना खौफ था कि पुलिस ने ही यह दावा भी कर दिया कि खूंखार राम बाबू गडरिया भी मारा गया और पुलिस ने रामबाबू की डेडबॉडी का पोस्टमार्टम कराकर अंतिम संस्कार भी करा दिया। इससे प्रसन्न दिग्विजय सिंह सरकार ने पुलिस कर्मचारी को पदोन्नत किया, लेकिन उत्साह कुछ समय बाद ही दूर हो गया। रामबाबू ने जल्द ही खुद को लूटपाट के लिए फिर से जीवित कर लिया, जिसके बाद पदोन्नत पुलिस कर्मचारी को निलंबित कर दिया गया।

ऐसे पुलिस की हथकड़ियों सहित गायब हुए
अप्रैल 2000 में गडरिया बंधुओं पर नकेल कसी गई। इस बार पुलिस ने गिरोह को पकड़ा, लेकिन एक साल से भी कम समय तक पुलिस उन्हें पकड़ कर रख सकी। मार्च 2001 के दूसरे सप्ताह में, .303 राइफलों से लैस छह पुलिसकर्मी पूरी तरह से लदी एक सरकारी बस में हथकड़ी लगे गिरोह के सदस्यों को ग्वालियर जेल से डबरा की अदालत में ले जा रहे थे। पुलिस इस बात से बेखबर थी कि गडरिया के एक दर्जन साथी बस में सवार हो चुके हैं। बस जौरासी घाट पर चाय के विश्राम के लिए रुकी और साथियों ने पुलिसवालों की आंखों में मिर्च पाउडर फेंक कर उन पर हमला कर दिया, गडरिया जा चुके थे, और पुलिस वाले रोते रह गए थे।

फिर से आए सुर्खियों में
अगस्त के अंतिम सप्ताह तक, जब गिरोह ने फिरौती के लिए एक आयुर्वेदिक चिकित्सक और दो स्वास्थ्य कर्मियों का अपहरण कर लिया, आधिकारिक पुलिस ब्रीफिंग ने कहा कि गडरिया गिरोह में आठ सदस्य थे। बमुश्किल दो महीने बाद, भंवरपुरा कांड के चश्मदीदों ने पुलिस को बताया कि गिरोह 12 मजबूत लोगों का था। दरअसल 2004 में ग्वालियर के भंवरपुरा में 13 गुर्जरों के नरसंहार ने इस खूंखार समूह को फिर से सुर्खियों में ला दिया था।

ऐसे हुआ था अंत
पुलिस का टारगेट नंबर वन था गड़रिया गैंग रामबाबू और दयाराम गडरिया भाई थे, जो बाद में कुख्यात डकैत बन गए थे। मध्यप्रदेश की पुलिस ने उनके गिरोह को टी-वन यानि टारगेट नंबर वन का नाम दिया था। यह गिरोह इस सफाई के साथ काम करता था कि पुलिस को यह तक नहीं पता था कि इसके आखिर कितने सदस्य हैं।

साल 1999 में एक आपराधिक वारदात के दौरान गोली लगने के वजह से रघुबीर मारा गया। उसके साथ मारे जाने वालों में 3 अन्य सदस्य भी थे। साल 2000 में इस गिरोह के कई सदस्य पुलिस के हत्थे चढ़ गए, लेकिन ये लोग 2001 में एक जेल से दूसरे जेल ले जाते समय पुलिस को झांसा देकर भाग निकले। साल 2006 के अगस्त महीने में एक मुठभेड़ के दौरान दयाराम की मौत हो गई। वहीं साल 2007 में रामबाबू एक मुठभेड़ के दौरान मारा गया।

अनेक बार मरकर भी जिंदा हो गए थे ये
ज्ञात हो कि सरकारी दस्तावेजों में पुलिस तीन बार रामबाबू का एनकाउंटर कर चुकी है। इनमें से दो बार के एनकाउंटर झूठे निकले। तीसरे एनकाउंटर के बाद से ग्वालियर-चंबल के बीहड़ में उसका मूवमेंट तो रुक गया, लेकिन उसकी मौत वाले एनकाउंटर पर अब तक कई बार सवाल उठ जाते हैं। इसकी वजह अप्रैल 2007 में मारे गए डकैत के चेहरे का मिलान रामबाबू गड़रिया के चेहरे से नहीं होना है। यह खुलासा होता है पुलिस की डकैत गड़रिया फाइल्स की पड़ताल से।

रामबाबू जिंदा निकला
खास बात ये है कि अप्रैल 2007 से पहले दो बार (जनवरी 1999 और जनवरी 2007) ग्वालियर और शिवपुरी पुलिस रामबाबू के एनकाउंटर में मारे जाने का दावा कर चुकी थी, लेकिन दोनों ही बार रामबाबू जिंदा निकला। जनवरी 1999 में थाना बैराड़ के टीआई अशोक तोमर और उनके साथियों ने रामबाबू के एनकाउंटर में मारे जाने की घोषणा की थी। सरकार ने इस एनकाउंटर के लिए बैराड़ थाना टीआई अशोक तोमर को आउट ऑफ टर्न प्रमोशन भी दिया था।

पुलिस का झूठा दावा –
इसके करीब 6 महीने बाद ग्वालियर के रिठोदन के जंगल में पुलिस की रामबाबू , गोपाल, प्रताप और दयाराम के साथ मुठभेड़ हुई। इस मुठभेड़ के बाद चारों गड़रिया बंधुओं ने सरेंडर किया था। तब बैराड़ थाना टीआई अशोक तोमर के साथ हुई पुलिस मुठभेड़ में रामबाबू के मारे जाने का दावा झूठा साबित हुआ था। हालांकि इसके बाद मार्च 2001 में पेशी पर ले जाने के दौरान रामबाबू समेत चारों भाई पुलिस गिरफ्त से फरार हो गए थे।

डेडबॉडी की शिनाख्त भी नहीं कराई
वहीं डकैत रामबाबू की बहन रामश्री ने पूर्व में बताया था कि रामबाबू की डेडबॉडी पुलिस ने नहीं दी। हमसे शिनाख्त भी नहीं कराई। पूछने पर डीएनए टेस्ट हुआ क्या? कहती हैं- हम तब जेल में थे। जेल में से हमारा ब्लड सैंपल लेकर गए थे। फिर हमें कोई जवाब नहीं दिया। न हमने शिनाख्त की। न हमें बताया। हम कैसे कह दें कि रामबाबू जिंदा है या मर गए। डीएनए रिपोर्ट में सैंपल मैच हुआ या नहीं? इस बारे में पुलिस ने भी अब तक कुछ भी नहीं बताया है।

रामश्री कहती है कि वैसे तो हर एक कोई भी पकड़ हो जाए। कुछ भी हो जाए, बहनें, भैय्या, भानेज सब को धरके ले जाएं। जब मारे हैं, तो डेडबॉडी तो बताते न। कोई डेडबॉडी नहीं बताई। न ही कोई शिनाख्त कराई। यह आतंक जब से खत्म हुआ है, तब से हमें कुछ भी नहीं मालूम। जब रामबाबू, दयाराम फरार थे, तब 22 केस लगे थे, जो अब खत्म हो गए हैं।

डेडबॉडी नहीं मिली
मप्र पुलिस के रिटायर्ड डीएसपी और एनकाउंटर स्पेशलिस्ट अशोक सिंह भदौरिया के अनुसार जनवरी 2007 में डकैत रामबाबू से खोड़ के जंगल में मुठभेड़ हुई थी। गोली उसके गले में लगी थी, लेकिन उसकी डेडबॉडी नहीं मिली थी। मुठभेड़ स्थल पर मिले साक्ष्यों के आधार पर रामबाबू को जनवरी 2007 में हुए एनकाउंटर में मरना बताया था, लेकिन वह जीवित था। रामबाबू घायल हालत में भागने में सफल हो गया। रामबाबू के रिश्तेदार और परिजन ने उसका इलाज कराया था।

रामबाबू के जिंदा होने की खबर मिलने के बाद अप्रैल 2007 में उसकी दोबारा घेराबंदी की गई थी। इस दौरान शिवपुरी में रामबाबू से पुलिस की मुठभेड़ हुई। इस मुठभेड़ में लगी गोली से वह घटनास्थल पर ही ढेर हो गया। रामबाबू के शव की शिनाख्त परिजन से कराई थी। इसके बाद डकैत रामबाबू गड़रिया का आतंक खत्म हुआ।

ऐसे समझें खौफ का आलम
ग्वालियर जिला मुख्यालय से करीब 90 किलोमीटर दूर स्थित हरसी डैम बना है। इसी डैम के एक किनारे पर बसा है डकैत रामबाबू, दयाराम गड़रिया का गांव हरसी। उन्हीं के परिवार के महाराज सिंह 22 साल बाद अपने गांव हरसी लौटे हैं। वह कहते हैं रामबाबू – दयाराम गड़रिया के खौफ के कारण 1999 में परिवार सहित गांव छोड़ दिया था। गांव में 4 बीघा जमीन थी, जो अब तक पड़ती डली हुई थी। अब उस जमीन पर फसल पैदा करने की कोशिश कर रहा हूं।

महाराज सिंह के मुताबिक वह अभी अकेले गांव लौटे हैं। परिवार में बेटा, बहू सहित सभी लोग हैं, लेकिन रामबाबू और दयाराम के खौफ के कारण कोई भी गांव नहीं लौटना चाहता। सभी अब ग्वालियर में रह रहे हैं। बकौल महाराज सिंह, रामबाबू और दयाराम गड़रिया के आंतक को खत्म हुए करीब 15 साल हो गए हैं, लेकिन उनकी मौजूदगी का खौफ अब भी डरा देता है।

Police : रामबाबू-दयाराम जब घंटा चढ़ाने आए –
ग्वालियर से करीब 100 किलोमीटर दूर स्थित बेलगढ़ा गांव की पहाड़ी पर मां लखेश्वरी का मंदिर बना है। इस मंदिर के महंत शरणदास बताते हैं कि रामबाबू-दयाराम गड़रिया अपने 8 साथियों के साथ अप्रैल 2006 में लखेश्वरी मंदिर में घंटा चढ़ाने आए थे। उनके साथ गोपाल और प्रताप गड़रिया भी थे।

मंदिर में घंटा चढ़ाने से पहले चारों भाइयों ने एक-एक कर करीब 8 से 10 हवाई फायर किए थे। मंदिर पर यूं तो हमेशा पुलिस पार्टी रहती थी, लेकिन रामबाबू, दयाराम, प्रताप और गोपाल गड़रिया के आने के करीब 7 दिन पहले पुलिस पार्टी मंदिर छोड़कर चली गई थी। जो गड़रिया बंधु के मंदिर में घंटा चढ़ाए जाने के करीब 4 दिन बाद मंदिर पर पहरा देने लौटी थी।

Hindi News / अतीक से भी भयंकर था इनका टेरर, इनके आने की खबर से ही खाली हो जाते थे गांव

Copyright © 2024 Patrika Group. All Rights Reserved.