मिथिलांचल में भाई-बहन के प्रेम का प्रतीक है सामा-चकेवा

इस अवसर पर महिलाएं अपने भाइयों को उसके धोती या गमछा में मुढ़ी और बतासा खाने के लिए देती है।

दरभंगाNov 08, 2024 / 05:42 pm

Pulakit

sama-chakeva-festival (प्रतीकात्मक)

दरभंगा. बिहार में मिथिलांचल के गांवों और शहरों में भाई-बहनों के बीच अटूट प्रेम का लोकपर्व सामा-चकेवा (Sama Chakeva) है। कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की सप्तमी तिथि से कार्तिक पूर्णिमा तक चलने वाले इस नौ-दिवसीय लोकपर्व सामा चकेवा में भाई-बहन के सात्विक स्नेह की गंगा निरंतर प्रभावित होती रहती है। पाश्चात्य सांस्कृतिक आक्रमण एवं आधुनिकता से मिथिलांचल की संस्कृति भी अछूती नहीं है, बावजूद इसके यहां लोकआस्था एवं लोकाचार की प्राचीन परम्परा से जुड़े पर्व पूरे उत्साह से मनाये जाते है। महापर्व छठ के पूर्व से ही छठी मईया के गीत के साथ-साथ सामा चकेवा के मधुर गीतों से मिथिलांचल का वातावरण गुंजायमान है। और यही कारण है कि मिथिलांचल की लोक संस्कृति आज भी जीवंत बनी हुई है। घर-आंगन के साथ-साथ चौक-चौराहों पर सामा-चकेवा के पारंपरिक गीत गूंजने लगे हैं।……वृन्दावन में आगि लागल केयो नाहिं मिझावे हे….हमर भैया, बड़का भैया दौड़ी-दौड़ी मिझावै हे…भाई-बहन के पवित्र प्यार पर आधारित लोकपर्व सामा चकेवा महापर्व छठ के प्रातः सूर्य के उदय के अर्ध्य वाले दिन से ही शुरू होकर कार्तिक पूर्णिमा तक चलता है।
मिथिलांचल में विशेष रूप से संध्या काल में मनाये जाने वाले इस पर्व में बहने अपने भाईयों के सुखद भविष्य की कामना करती है। छठ पर्व संपन्न कर घाट से लौटने के तुरंत बाद लड़कियों एवं महिलाएँ समूह में सामा-चकेवा (Sama Chakeva) में पूजे जाने वाली मूर्तियां खरीदने कुम्हारों की बस्तियों में उमड़ पड़ी है। दरभंगा के मब्बी, शिव धारा, हसनचक, मौलागंज, बेला, पंडासराय, समेत सभी गांवों एवं मुहल्लों में शाम तक इन मूर्तियों की बिक्री होती रहती है। हालांकि ये मूर्तियां आज भी कुछ बहनें स्वयं भी बनाती है। सांझ ढ़लने पर सामा-चकेवा, चुगला सहित अन्य की प्रतीकात्मक मूर्तियों को बांस के बने रंगीन डाला में सजाकर महिलाएं अपने-अपने घरों से निकल कर शाम में चौक-चौराहों पर मूर्तियों की पूजा कर सामा खेलने एक जगह जुटती हैं तो समां बदल जाता है। मनोहारी गीतों की स्वर लहरियां दूर-दूर तक तैरने लगी है।

(Sama Chakeva) किसी विशेष जाति-धर्म का नहीं यह पर्व

दरभंगालोक संस्कृति के मर्मज्ञ डॉ. शंकरदेव झा ने बताया कि सामा-चकेवा लोकपर्व है और यह किसी जाति विशेष का पर्व नहीं है और न हीं यह मिथिला के किसी विशेष क्षेत्र का पर्व है। यह हिमालय की तलहटी से लेकर गंगा तट तक और पूरे चम्पारण से लेकर दीनाजपुर तक मनाया जाता है। दिनाजपुर मालदह के निवासियों के बंगला भाषी होने के बाद भी वहां की महिलाएं एवं युवती सामा-चकेवा के मैथिली गीत ही गाती हैं, जबकि चम्पारण में भोजपुरी एवं बज्जिका मिश्रित मैथिली में सामा-चकेवा के गीत गाये जाते हैं।श्री झा ने सामा चकेवा के धार्मिक महत्व के संबंध में बताया कि भगवान कृष्ण की पुत्री श्यामा और पुत्र शाम्भ के बीच के स्नेह पर आधारित भाई-बहनों के स्नेह का यह लोक पर्व आज भी खासकर मिथिलांचल में पूरे उत्साह के साथ मनाया जाता है।

(Sama Chakeva) भगवान कृष्ण की पुत्री का विवाह हुआ था ऋषि चारू से

उन्होंने बताया कि भगवान कृष्ण की पुत्री श्यामा का विवाह ऋषि कुमार चारू दत्त से हुआ था। श्यामा धार्मिक प्रवृत्ति को मानने वाली थी और ऋषि-मुनियों की सेवा करने के लिए उनके आश्रमों में जाया करती थी। भगवान कृष्ण के एक दुष्ट स्वभाव के मंत्री चुरक को यह रास नहीं आया और उसने श्यामा के खिलाफ राजा का कान भरना शुरू किया। क्रोध में आने पर भगवान श्रीकृष्ण ने श्यामा को पक्षी बन जाने का श्राप दे दिया। श्यामा के पक्षी बन जाने पर उसके पति चारू दत्त ने महादेव की पूजा-अर्चना कर उन्हें प्रसन्न कर स्वयं भी पक्षी का रूप प्राप्त कर लिया। श्यामा के भाई एवं भगवान श्रीकृष्ण के पुत्र शाम्भ अपने बहन-बहनोई की इस दशा से मर्माहत होकर अपने पिता की ही आराधना शुरू कर दी, जिससे प्रसन्न होकर श्रीकृष्ण ने उससे वरदान मांगने को कहा। पुत्र के अपनी बहन-बहनोई को मानव रूप में वापस करने का वरदान मांगे जाने पर भगवान कृष्ण को पूरी सच्चाई का पता लगा, तब उन्होंने श्राप मुक्ति के उपाय बताते हुए कहा कि श्यामा रूपी सामा एवं चारू दत्त रूपी चकेवा की मूर्ति बनाकर उनके गीत गाये और चुरक की कारगुजारियों को उजागर करें तो वे दोनों पुन: अपने पुराने स्वरूप को प्राप्त कर सकेंगे। जनश्रुति के अनुसार शरद महीने में सामा-चकेवा पक्षी की जोड़ियां मिथिला में प्रवास करने पहुंच गयी थी। भाई शाम्भ भी उसे खोजते हुए मिथिला पहुंचे और वहां की महिलाओं से अपने बहन-बहनोई को श्राप से मुक्ति करने के लिये सामा-चकेवा (Sama Chakeva) का खेल खेलने का आग्रह किया।

(Sama Chakeva) संठी से बने चुगला को महिलाएं देती हैं गालियां

कहा जाता हैं कि उसी द्वापर युग से कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की सप्तमी तिथि से पूर्णिमा तक इसका आयोजन आज भी हो रहा है। इस लोकपर्व में बहनें सामा-चकेवा (Sama Chakeva) सतभइया. खडरीच, चुगिला, वृन्दावन, चौकीदार, झाझीकुकुर, शाम्भ आदि की प्रतिमा एवं उपकरण मिट्टी एवं खड्ड से बनाती हैं और उसे बांस की बनी टोकरी (डाला) में लेकर शाम होते ही गांव एवं शहर के चौराहाों एवं जुते हुए खेतों में जुटतीं हैं और सामा- चकेवा से संबंधित पारम्परिक गीतों का गायन करतीं हैं। इसके बाद खड्ड से बनी वृन्दावन में आग लगातीं हैं और बुझातीं हैं। इस दौरान महिलाएं ..वृन्दावन में आगि लागल क्यो न बुझाबै हे. हमरो से बड़का भइया दौडल चली आबए हे, हाथ सुवर्ण लोटा वृन्दावन मुझावै हे, इसके बाद महिलाएं संठी से निर्मित चुगला को गालियाँ देती हुई.. उसके दाढ़ी में आग लगाते हुए गाती है कि ..चुगला करे चुगलपन, बिल्लाई करै म्याउं, ला चुगला के फांसी द आउं। इस दौरान सामा-चकेवा (Sama Chakeva) का विशेष श्रृंगार किया जाता है और उसे खाने के लिये हरे-हरे धान की बालियाँ दी जाती है। रात्रि में उसे महिलाएं खुले आसमान के नीचे ओस पीने के लिये छोड़ देती हैं। कार्तिक पूर्णिमा के दिन इस पर्व का समापन होता है। समापन के पूर्व भाइयों द्वारा सामा चकेवा (Sama Chakeva) के मूर्तियों को घुटने से तोड़ा जाता है फिर उसे नदी एवं तालाब या खुले खेतों में विसर्जित कर दिया जाता है। पंचकोसी मिथिला में जुते हुए खेतों में सामा-चकेवा की मूर्तियों को विर्सजित करने की परम्परा है, जबकि अन्य जगहों पर उसे नदी एवं तालाब में प्रवाहित किया जाता है।

(Sama Chakeva) भाइयों को दिया जाता है गमछे में मुढ़ी-बतासा

इस अवसर पर महिलाएं अपने भाइयों को उसके धोती या गमछा में मुढ़ी और बतासा खाने के लिए देती है। विर्सजन के दौरान महिलाएं सामा-चकेवा से फिर अगले वर्ष आने का आग्रह करते हुए ……सामचको-सामचको अबिहै हे, जोतला खेत में बैसियह हे, सब रंग पटिया ओछिबइह हे, भइया के आशीष दीह हे गाती है। विसर्जन के दिन इस पर्व के दौरान भाइयों की काफी अहम भूमिका होती है। आधुनिकता एवं मीडिया कल्चर से प्रभावित नये परिवार अब इस तरह के पारम्परिक उत्सवों को हेय दृष्टि से देखने लगे है, जबकि पारम्परिक निष्ठा निभाने वाले मध्यमवर्गीय एवं निम्नवर्गीय मिथिलावासी आज भी अपनी इस परम्परा को सीने से लगाये है और यही वजह है कि मिथिलांचल की लोक संस्कृति आज भी जीवंत बनी हुई है।

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