शरीर में तीन प्रकार की नाडिय़ां प्रसिद्ध हैं-शिरा, धमनी और स्नायु। रसवाहिनी नाडिय़ां शिरा नाम से प्रसिद्ध हैं। ज्ञानवाहिनी नाडिय़ां स्नायु हैं। इसलिए ये ज्ञान तन्तु भी कहलाती हैं। वायुवाहिनी नाडिय़ां धमनी (धौंकनी) नाम से प्रसिद्ध हैं। जहां स्नायु है वहां रस भी अवश्य है एवं जहां रस है वहां ‘यावानु वै रसस्तावानात्मा’-इस सिद्धान्त के अनुसार ज्ञान (चेतना) भी अवश्य है। वायु, रस और ज्ञान तीनों अविनाभूत हैं। वायु संचार से रस बनता है। रस पर ज्ञान प्रतिष्ठित रहता है। इस प्रकार धमनी, शिरा, स्नायु तीनों नाडिय़ों का अविनाभाव सिद्ध हो जाता है।
पंचभूतात्मक शरीर का मध्य भाग हृदय कहा जाता है। यहीं आत्मा प्रतिष्ठित है-‘हृदि ह्येष आत्मा।’ कठोपनिषद में हृदय की 101 नाडिय़ां कही गई हैं-‘शतं चैका च हृदयस्य नाड्य:।’ इन्हीं नाडिय़ों से हमारा व्यान (प्राण) सर्वत्र व्याप्त रहता है। मनुष्य कभी हंसता है, कभी रोता है, कभी उदास होता है। कभी दौड़ता है, बैठता है आदि अनेक प्रकार के क्रियाकलाप तथा हाव-भावों को करता है। इस विविध रूपता को प्रभावित करने वाला प्राण व्यान है। पृथक-पृथक नाड़ी स्रोतों से निकलने वाला यह प्राण ही हमसे भिन्न-भिन्न चेष्टाएं (कर्म) करवाता है।
व्यान नाडिय़ां-पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश पांच रूपों में विभक्त होकर पृथ्वीनाड़ी, जलनाड़ी, तेजनाड़ी, वायुनाड़ी, व्योमनाड़ी कहलाने लगती हैं। इन नाडिय़ों के सम्बन्ध से हृदय में उक्थ रूप से प्रतिष्ठित व्यान वायु अर्करूप से सम्पूर्ण शरीर में व्याप्त हो जाता है। अत: ‘व्यान: सर्वशरीरग:’ यह कहा जाता है। इन पांच रूप में विभक्त नाडिय़ों का शरीरगत भिन्न-भिन्न भावों से सम्बन्ध है एवं आयतन भेद से रस, वर्ण, स्पर्श भी पांचों के भिन्न-भिन्न हैं। शरीर के अस्थि, मांस, त्वचा तीनों घनद्रव्य हैं। ‘यत् कठिनं सा पृथ्वी’ के अनुसार तीनों का पृथ्वी भाग से सम्बन्ध है। इनका रस मधुर है, वर्ण पीत (पीला) है। स्पर्श सम (न उग्र न मृदु) है।
यह भी देखें – शरीर ही ब्रह्माण्ड : ज्ञान-कर्म-अर्थ हमारे अन्न
पंचभूतात्मक शरीर का मध्य भाग हृदय कहा जाता है। यहीं आत्मा प्रतिष्ठित है-‘हृदि ह्येष आत्मा।’ कठोपनिषद में हृदय की 101 नाडिय़ां कही गई हैं-‘शतं चैका च हृदयस्य नाड्य:।’ इन्हीं नाडिय़ों से हमारा व्यान (प्राण) सर्वत्र व्याप्त रहता है। मनुष्य कभी हंसता है, कभी रोता है, कभी उदास होता है। कभी दौड़ता है, बैठता है आदि अनेक प्रकार के क्रियाकलाप तथा हाव-भावों को करता है। इस विविध रूपता को प्रभावित करने वाला प्राण व्यान है। पृथक-पृथक नाड़ी स्रोतों से निकलने वाला यह प्राण ही हमसे भिन्न-भिन्न चेष्टाएं (कर्म) करवाता है।
व्यान नाडिय़ां-पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश पांच रूपों में विभक्त होकर पृथ्वीनाड़ी, जलनाड़ी, तेजनाड़ी, वायुनाड़ी, व्योमनाड़ी कहलाने लगती हैं। इन नाडिय़ों के सम्बन्ध से हृदय में उक्थ रूप से प्रतिष्ठित व्यान वायु अर्करूप से सम्पूर्ण शरीर में व्याप्त हो जाता है। अत: ‘व्यान: सर्वशरीरग:’ यह कहा जाता है। इन पांच रूप में विभक्त नाडिय़ों का शरीरगत भिन्न-भिन्न भावों से सम्बन्ध है एवं आयतन भेद से रस, वर्ण, स्पर्श भी पांचों के भिन्न-भिन्न हैं। शरीर के अस्थि, मांस, त्वचा तीनों घनद्रव्य हैं। ‘यत् कठिनं सा पृथ्वी’ के अनुसार तीनों का पृथ्वी भाग से सम्बन्ध है। इनका रस मधुर है, वर्ण पीत (पीला) है। स्पर्श सम (न उग्र न मृदु) है।
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शुक्र, शोणित, मज्जा तीन तरल धातु हैं। कफ, लाला (लार) आदि का इन्हीं में अन्तर्भाव है। ‘यद् द्रवं तदाप:’ अर्थात् ये तीनों आप: भूत यानी जल नाडिय़ों से सम्बद्ध हैं। इनका रस शिव है। वर्ण श्वेत है। स्पर्श ठण्डा है। क्षुधा, तृषा, निद्रा तीनों आग्नेय धातु हैं। अन्न की आहुति से शरीराग्नि शान्त होता हुआ शिव बन जाता है। रुद्राग्नि को शान्त करने वाले को शतरुद्रिय कहते हैं।
बिना अन्न के अग्नि प्रज्वलित होकर क्षुब्ध हो जाता है। अग्नि के इस क्षोभ का ही नाम भूख और प्यास है। इन दोनों वृत्तियों को अग्निरूपा कहते हैं। तीसरी है निद्रा वृत्ति। तेज (सौर तेज) के प्रबल आक्रमण से ही निद्रा होती है। निद्रा का तेज में ही अन्तर्भाव है। इस प्रकार क्षुधा, पिपासा, निद्रा तीनों तेज नाडिय़ों से सम्बद्ध हैं। इनका रस तीक्ष्ण है, वर्ण लाल है, स्पर्श ऊष्म है।
धावन (दौड़), चलन, भाषण तीन वायु धातुएं हैं। दौडऩा, चलना, बोलना तीनों गतिधर्म वाले वायु के कार्य हैं। इन तीनों कार्यों को वायुधातु कहते हैं। वायु नाडिय़ों का रस अम्ल है। वर्ण चित्र (चितकबरा) है। स्पर्श सम है। द्वेष, लज्जा, भय तीन भावों का आकाश से सम्बन्ध है। लज्जा में आकाश संकुचित होता है। भय में प्रतिष्ठा से गिरता है, जगह छोड़ता है। द्वेष में दूसरे से अपने को हटाता है। तीनों कार्य अन्तरिक्ष रूप आकाश से सम्बन्ध रखते हैं। इन व्योमनाडिय़ों का रस कटु है। वर्ण श्याम है। स्पर्श कटु है।
इन पांचों नाडिय़ों की पुष्टि पांच प्राणों से होती है। शरीर में प्राण, उदान, व्यान, समान, अपान इन पांचों भागों में एक ही सौर प्राण विभक्त होकर प्रतिष्ठित रहता है-‘पञ्चधाऽऽत्मानं प्रविभज्य।’ प्राण हृदय में, अपान मूलाधार में और समान नाभि में प्रतिष्ठित है। उदान कण्ठ में प्रतिष्ठित है। व्यान पूरे शरीर में प्रतिष्ठित है। इन पांचों प्राणों के दो-दो काम हैं। नाडिय़ों को पुष्ट करना-‘तत्तद्भूतरसोपजनित-तत्तद्भूतमय।’ उन नाडिय़ों को सुरक्षित रखना पहला काम है।
हृदय में प्रतिष्ठित प्राण पृथ्वी नाडिय़ों को पुष्ट करता है। मूलाधार में प्रतिष्ठित अपान प्राण जलनाडिय़ों को पुष्ट करता है। कण्ठप्रदेश का उदान प्राण तेजनाडिय़ों को पुष्ट करता है। नाभिप्रदेश में प्रतिष्ठित समान प्राण वायु नाडिय़ों को पुष्ट करता है। पूरे शरीर में रहने वाला व्यान प्राण व्योम नाडिय़ों का पोषण करता है।
यह भी देखें – शरीर ही ब्रह्माण्ड : सूर्य जैसा हो यज्ञ-तप-दान
बिना अन्न के अग्नि प्रज्वलित होकर क्षुब्ध हो जाता है। अग्नि के इस क्षोभ का ही नाम भूख और प्यास है। इन दोनों वृत्तियों को अग्निरूपा कहते हैं। तीसरी है निद्रा वृत्ति। तेज (सौर तेज) के प्रबल आक्रमण से ही निद्रा होती है। निद्रा का तेज में ही अन्तर्भाव है। इस प्रकार क्षुधा, पिपासा, निद्रा तीनों तेज नाडिय़ों से सम्बद्ध हैं। इनका रस तीक्ष्ण है, वर्ण लाल है, स्पर्श ऊष्म है।
धावन (दौड़), चलन, भाषण तीन वायु धातुएं हैं। दौडऩा, चलना, बोलना तीनों गतिधर्म वाले वायु के कार्य हैं। इन तीनों कार्यों को वायुधातु कहते हैं। वायु नाडिय़ों का रस अम्ल है। वर्ण चित्र (चितकबरा) है। स्पर्श सम है। द्वेष, लज्जा, भय तीन भावों का आकाश से सम्बन्ध है। लज्जा में आकाश संकुचित होता है। भय में प्रतिष्ठा से गिरता है, जगह छोड़ता है। द्वेष में दूसरे से अपने को हटाता है। तीनों कार्य अन्तरिक्ष रूप आकाश से सम्बन्ध रखते हैं। इन व्योमनाडिय़ों का रस कटु है। वर्ण श्याम है। स्पर्श कटु है।
इन पांचों नाडिय़ों की पुष्टि पांच प्राणों से होती है। शरीर में प्राण, उदान, व्यान, समान, अपान इन पांचों भागों में एक ही सौर प्राण विभक्त होकर प्रतिष्ठित रहता है-‘पञ्चधाऽऽत्मानं प्रविभज्य।’ प्राण हृदय में, अपान मूलाधार में और समान नाभि में प्रतिष्ठित है। उदान कण्ठ में प्रतिष्ठित है। व्यान पूरे शरीर में प्रतिष्ठित है। इन पांचों प्राणों के दो-दो काम हैं। नाडिय़ों को पुष्ट करना-‘तत्तद्भूतरसोपजनित-तत्तद्भूतमय।’ उन नाडिय़ों को सुरक्षित रखना पहला काम है।
हृदय में प्रतिष्ठित प्राण पृथ्वी नाडिय़ों को पुष्ट करता है। मूलाधार में प्रतिष्ठित अपान प्राण जलनाडिय़ों को पुष्ट करता है। कण्ठप्रदेश का उदान प्राण तेजनाडिय़ों को पुष्ट करता है। नाभिप्रदेश में प्रतिष्ठित समान प्राण वायु नाडिय़ों को पुष्ट करता है। पूरे शरीर में रहने वाला व्यान प्राण व्योम नाडिय़ों का पोषण करता है।
यह भी देखें – शरीर ही ब्रह्माण्ड : सूर्य जैसा हो यज्ञ-तप-दान
व्योम नाडिय़ों में मुख्य नाड़ी सुषुम्णा है जो कण्ठनलिका द्वारा ब्रह्मरन्ध्र तक जाती है। इसका मूल स्थान हृदय है। यही प्रधान सूर्यरश्मि है। ब्रह्मरन्ध्र स्थित इसी नाड़ी द्वार से सौर प्राण आता है तथा पुन: हृदय से सूर्य में जाता है। सूर्य से आने वाला सौरप्राण ही आयु का कारण है।
हमारा समस्त शारीरिक संचालन यानी सभी कर्म अन्न, मन, बुद्धि और त्रिगुण आदि से प्रभावित रहते हैं। ‘जैसा खावे अन्न वैसा होवे मन’ प्रसिद्ध ही है। यदि अन्न दूषित है और तामसिक है तो शरीर में विकार अवश्य ही उत्पन्न हो जाते हैं। इससे शरीर के वात-पित्त-कफ प्रभावित होते हैं। इनमें परस्पर असंतुलन से रोग हो जाते हैं। इन रोगों के निदान के लिए कलाई पर डॉक्टर-वैद्य को अपनी अंगुलियां रखकर नाड़ी अथवा ‘पल्स’ का परीक्षण करते हम अक्सर देखते हैं।
आयुर्वेद में इससे शरीर में वात-पित्त-कफ का परीक्षण होता है। ज्योतिष में विवाह गुण-मिलान के समय इसी नाड़ी का अन्य रूप में महत्वपूर्ण परीक्षण किया जाता है। दाम्पत्य और प्रजोत्पत्ति का संकेत इससे मिलता है। इन तीन नाडिय़ों को आद्य-मध्य और अन्त्य कहा जाता है। प्रत्येक नाड़ी से नौ नक्षत्र समूह जुड़े माने गए हैं। जन्मकुण्डली में चन्द्रमा की किसी विशेष नक्षत्र में उपस्थिति से नाड़ी का पता चलता है। कुल २७ नक्षत्रों में से नौ विशेष नक्षत्रों में चन्द्र (व्यक्ति के जन्म के समय) के होने से व्यक्ति की तीनों में से कोई एक नाड़ी जन्मनाड़ी होती है।
विवाह के लिए नर-नारी के गुणों का मिलान करते समय यह ध्यान रखा जाता है कि दोनों की नाड़ी समान नहीं हो। दोनों की आद्य-आद्य नाड़ी होने पर विवाह उपरान्त वियोग अथवा विच्छेद होना माना जाता है। मध्य-मध्य नाड़ी दोष मृत्युकारक माना गया है। अन्त्य-अन्त्य नाड़ी दोनों की हो तो अत्यन्त दु:ख भोगना पड़ता है। संतान मानसिक और शारीरिक रूप से अस्वस्थ होगी। वस्तुत: विवाह संस्था में नर-नारी दोनों एक-दूसरे को ही तो भोगते हैं। नाड़ी दोष हो तो दोनों के जीवन में दु:ख का कारण बन जाता है। नाड़ी दोष होने पर विवाह की सलाह नहीं दी जाती। यही नहीं, दो पुरुषों अथवा दो स्त्रियों में नाड़ी दोष हो तो शत्रुता अथवा अन्य दु:खों का कारण बन जाता है। क्रमश:
यह भी देखें – शरीर ही ब्रह्माण्ड : त्याग में देना नहीं, लेना है
हमारा समस्त शारीरिक संचालन यानी सभी कर्म अन्न, मन, बुद्धि और त्रिगुण आदि से प्रभावित रहते हैं। ‘जैसा खावे अन्न वैसा होवे मन’ प्रसिद्ध ही है। यदि अन्न दूषित है और तामसिक है तो शरीर में विकार अवश्य ही उत्पन्न हो जाते हैं। इससे शरीर के वात-पित्त-कफ प्रभावित होते हैं। इनमें परस्पर असंतुलन से रोग हो जाते हैं। इन रोगों के निदान के लिए कलाई पर डॉक्टर-वैद्य को अपनी अंगुलियां रखकर नाड़ी अथवा ‘पल्स’ का परीक्षण करते हम अक्सर देखते हैं।
आयुर्वेद में इससे शरीर में वात-पित्त-कफ का परीक्षण होता है। ज्योतिष में विवाह गुण-मिलान के समय इसी नाड़ी का अन्य रूप में महत्वपूर्ण परीक्षण किया जाता है। दाम्पत्य और प्रजोत्पत्ति का संकेत इससे मिलता है। इन तीन नाडिय़ों को आद्य-मध्य और अन्त्य कहा जाता है। प्रत्येक नाड़ी से नौ नक्षत्र समूह जुड़े माने गए हैं। जन्मकुण्डली में चन्द्रमा की किसी विशेष नक्षत्र में उपस्थिति से नाड़ी का पता चलता है। कुल २७ नक्षत्रों में से नौ विशेष नक्षत्रों में चन्द्र (व्यक्ति के जन्म के समय) के होने से व्यक्ति की तीनों में से कोई एक नाड़ी जन्मनाड़ी होती है।
विवाह के लिए नर-नारी के गुणों का मिलान करते समय यह ध्यान रखा जाता है कि दोनों की नाड़ी समान नहीं हो। दोनों की आद्य-आद्य नाड़ी होने पर विवाह उपरान्त वियोग अथवा विच्छेद होना माना जाता है। मध्य-मध्य नाड़ी दोष मृत्युकारक माना गया है। अन्त्य-अन्त्य नाड़ी दोनों की हो तो अत्यन्त दु:ख भोगना पड़ता है। संतान मानसिक और शारीरिक रूप से अस्वस्थ होगी। वस्तुत: विवाह संस्था में नर-नारी दोनों एक-दूसरे को ही तो भोगते हैं। नाड़ी दोष हो तो दोनों के जीवन में दु:ख का कारण बन जाता है। नाड़ी दोष होने पर विवाह की सलाह नहीं दी जाती। यही नहीं, दो पुरुषों अथवा दो स्त्रियों में नाड़ी दोष हो तो शत्रुता अथवा अन्य दु:खों का कारण बन जाता है। क्रमश:
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