कल-कल ध्वनि से बहता झरना
जिला मुख्यालय से महज 15-20 किमी. दूर स्थित गांगुलपारा डेम और झरना प्रकृति प्रेमियों के सर्वोत्तम पर्यटन स्थल है। कल-कल बहते झरने, कटिली पहाडिय़ां एवं प्राकृतिक सौन्दर्य बरबस ही पर्यटकों को अपनी ओर आकर्षित करते हैं। वर्तमान में सुरक्षा की दृष्टि से यहां वन विभाग ने एक वन चौकी बनाकर वन कर्मचारियों की तैनाती भी की है। वहीं पर्यटकों के लिए यहां मूलभूत सुविधआों के इंतजाम भी किए जा रहे हैं। इसी तरह एक झरना हट्टा किरनापुर के डोंगरगांव गुप्तेश्वर पहाड़ी के पीछे भी देखने को मिलता है। यहां 70 फीट की ऊंचाई का जलप्रपात पर्यटकों की पहली पसंद बन रहा है।
जिला मुख्यालय से महज 15-20 किमी. दूर स्थित गांगुलपारा डेम और झरना प्रकृति प्रेमियों के सर्वोत्तम पर्यटन स्थल है। कल-कल बहते झरने, कटिली पहाडिय़ां एवं प्राकृतिक सौन्दर्य बरबस ही पर्यटकों को अपनी ओर आकर्षित करते हैं। वर्तमान में सुरक्षा की दृष्टि से यहां वन विभाग ने एक वन चौकी बनाकर वन कर्मचारियों की तैनाती भी की है। वहीं पर्यटकों के लिए यहां मूलभूत सुविधआों के इंतजाम भी किए जा रहे हैं। इसी तरह एक झरना हट्टा किरनापुर के डोंगरगांव गुप्तेश्वर पहाड़ी के पीछे भी देखने को मिलता है। यहां 70 फीट की ऊंचाई का जलप्रपात पर्यटकों की पहली पसंद बन रहा है।
गुफाओं के अंदर प्राकृतिक शिवलिंग
जिले प्रसिद्ध होते दर्शानिक पर्यटन स्थल के रूप में गुप्तेश्वर धाम आता है। जिले के हट्टा किरनापुर क्षेत्र के डोंगरगांव की पहाडिय़ों की रहस्यमयी गुफाओं के करीब 50 फीट अंदर भूतिगत प्राकृतिक शिवलिंग विद्मान है। गुफाओं के अंदर कई प्रकार की शेषनाग, गौथन जैसी आकृतियां बनी हुई है। श्रद्धालुओं की मान्यता है कि इस गुफा के अंदर भगवान शिव ने कैलाश पर्वत जैसा लोक बसाया हुआ है। कारण यहीं है कि श्रद्धालुओं की संख्या में लगातार इजाफा हो रहा है।
जिले प्रसिद्ध होते दर्शानिक पर्यटन स्थल के रूप में गुप्तेश्वर धाम आता है। जिले के हट्टा किरनापुर क्षेत्र के डोंगरगांव की पहाडिय़ों की रहस्यमयी गुफाओं के करीब 50 फीट अंदर भूतिगत प्राकृतिक शिवलिंग विद्मान है। गुफाओं के अंदर कई प्रकार की शेषनाग, गौथन जैसी आकृतियां बनी हुई है। श्रद्धालुओं की मान्यता है कि इस गुफा के अंदर भगवान शिव ने कैलाश पर्वत जैसा लोक बसाया हुआ है। कारण यहीं है कि श्रद्धालुओं की संख्या में लगातार इजाफा हो रहा है।
यहां वनवास के समय पधारे थे श्रीराम
जिला मुख्यालय से 25 किमी पश्चित दिशा की तरफ रामपायली नगरी विद्यमान है। यहां का प्रसिद्ध श्रीराम बालाजी मंदिर भगवान श्रीराम के वनगमन की कई ऐतिहासिक धरोहरों और मान्यतों को समेटे हुए हैं। मान्यता है कि भगवान श्रीराम 14 वर्षो के वनवास के समय इस नगरी में पधारे थे। तब से इस नगरी का नाम राम पदावली अर्थात रामपायली हो गया। यहां प्रभु श्रीराम के दर्शन करने लाखों श्रद्धालु और पर्यटक पहुंचते हैं। देश के नक्शे में भी यह ऐतिहासिक मंदिर अपनी अलग पहचान बना रहा है।
स्थानीय लोगों के मुताबिक श्रीराम मंदिर का निर्माण करीब 600 वर्ष पूर्व भंडारा जिले के तत्कालीन मराठा भोषले ने नदी किनारे एक किले के रुप में वैज्ञानिक ढंग से कराया था। मंदिर में ऐसे झरोखों का निर्माण है, जिससे सुर्योदय के समय सुरज की पहली किरण भगवान श्रीराम बालाजी के चरणों में पड़ती है। भारत के प्राचीन इतिहास में इस मंदिर के निर्माण का उल्लेख है। यहां के लोगों का मानना है कि मंदिर इतना सिद्ध स्थल है कि स्वयं भगवान सूर्यदेव भी उदय होने पर सबसे पहले प्रभु श्रीराम के चरण स्पर्श करते हैं।
जिला मुख्यालय से 25 किमी पश्चित दिशा की तरफ रामपायली नगरी विद्यमान है। यहां का प्रसिद्ध श्रीराम बालाजी मंदिर भगवान श्रीराम के वनगमन की कई ऐतिहासिक धरोहरों और मान्यतों को समेटे हुए हैं। मान्यता है कि भगवान श्रीराम 14 वर्षो के वनवास के समय इस नगरी में पधारे थे। तब से इस नगरी का नाम राम पदावली अर्थात रामपायली हो गया। यहां प्रभु श्रीराम के दर्शन करने लाखों श्रद्धालु और पर्यटक पहुंचते हैं। देश के नक्शे में भी यह ऐतिहासिक मंदिर अपनी अलग पहचान बना रहा है।
स्थानीय लोगों के मुताबिक श्रीराम मंदिर का निर्माण करीब 600 वर्ष पूर्व भंडारा जिले के तत्कालीन मराठा भोषले ने नदी किनारे एक किले के रुप में वैज्ञानिक ढंग से कराया था। मंदिर में ऐसे झरोखों का निर्माण है, जिससे सुर्योदय के समय सुरज की पहली किरण भगवान श्रीराम बालाजी के चरणों में पड़ती है। भारत के प्राचीन इतिहास में इस मंदिर के निर्माण का उल्लेख है। यहां के लोगों का मानना है कि मंदिर इतना सिद्ध स्थल है कि स्वयं भगवान सूर्यदेव भी उदय होने पर सबसे पहले प्रभु श्रीराम के चरण स्पर्श करते हैं।
सतियों के इतिहास को समेटे सतिटोला
193 साल पहले वर्ष 1829 में भारतीय पुनर्जागरण के अग्रदूत और आधुनिक भारत के जनक राजा राममोहन राय के अथक प्रयासों से सतीप्रथा का अंत हुआ और एक नए आधुनिक युग की शुरुआत हुई। इस प्रथा से जुड़ी कहानियों के चिन्ह भी बालाघाट जिला मुख्यालय से 80-85 किमी दूर ग्राम चाकाहेटी के सतीटोला में देखने तथा सुनने को मिलते हैं। गांव के बुर्जुग बताते हैं कि सतीटोला सतियों का गांव रहा है। इस कारण टोले का नाम सतीटोला रखा गया है। सतीटोला में 35 स्मारक है, जिनमें 100 से भी अधिक राजा एवं रानियों, पटरानियों के चित्र पत्थरों पर उकेरे हुए हैं। चित्र में 10 बच्चों के चित्र भी शामिल है, जो अपनी माताओं के गोंद में है। बताया जाता है कि यह मासूम भी सतीप्रथा जैसी कुरीतियों का शिकार हुए हैं।
193 साल पहले वर्ष 1829 में भारतीय पुनर्जागरण के अग्रदूत और आधुनिक भारत के जनक राजा राममोहन राय के अथक प्रयासों से सतीप्रथा का अंत हुआ और एक नए आधुनिक युग की शुरुआत हुई। इस प्रथा से जुड़ी कहानियों के चिन्ह भी बालाघाट जिला मुख्यालय से 80-85 किमी दूर ग्राम चाकाहेटी के सतीटोला में देखने तथा सुनने को मिलते हैं। गांव के बुर्जुग बताते हैं कि सतीटोला सतियों का गांव रहा है। इस कारण टोले का नाम सतीटोला रखा गया है। सतीटोला में 35 स्मारक है, जिनमें 100 से भी अधिक राजा एवं रानियों, पटरानियों के चित्र पत्थरों पर उकेरे हुए हैं। चित्र में 10 बच्चों के चित्र भी शामिल है, जो अपनी माताओं के गोंद में है। बताया जाता है कि यह मासूम भी सतीप्रथा जैसी कुरीतियों का शिकार हुए हैं।
बताया कि सतियों के स्मारक स्थल पर सोमजी बाबा की वर्ष में दो बार विशेष पूजा अर्चना होती है। पहली पूजा दीपावली के तीसरे दिन तथा दूसरी पूजा अखाड़ी वाले रोज होती है। इस दौरान यहां हजारों की संख्या में लोग पहुंच कर मन्नते मांगते हैं, जो पुरी होने की बात कहीं जाती है।
बावली का कभी नहीं सूखा पानी
जिले के नाम को चार चांद लगाने वाली हट्टा की बावली किसी अजूबे से कम नहीं है। राजा हटेसिंह के कार्यकाल में बनाई गई तीन मंजिला इस बावली में दो मंजिल तक हमेशा पानी भरा होता है। इस बावली में हर साल एक जनवरी को तीन दिन का मेला लगता है। इस दौरान हजारों की संख्या में पर्यटक यहां पहुंचते हैं। राज्य शासन ने इसे अपने अधीन कर लिया है। वहीं डीएटीसीसी द्वारा इसकी निगरानी कर इसके जीर्णोद्वार और सौन्दर्यीकरण के लिए प्रयास किए जा रहे हैं।
जिले के नाम को चार चांद लगाने वाली हट्टा की बावली किसी अजूबे से कम नहीं है। राजा हटेसिंह के कार्यकाल में बनाई गई तीन मंजिला इस बावली में दो मंजिल तक हमेशा पानी भरा होता है। इस बावली में हर साल एक जनवरी को तीन दिन का मेला लगता है। इस दौरान हजारों की संख्या में पर्यटक यहां पहुंचते हैं। राज्य शासन ने इसे अपने अधीन कर लिया है। वहीं डीएटीसीसी द्वारा इसकी निगरानी कर इसके जीर्णोद्वार और सौन्दर्यीकरण के लिए प्रयास किए जा रहे हैं।
लांजी का किला
कल्चुरीवंश वंश के गोंड राजाओं के जमाने में लांजी के किले का निर्माण हुआ था। किले में पुरातन काल के अवशेष, महामाया का मंदिर पर्यटकों को अपनी ओर लुभाता है। कारण यहीं है कि किला पूरे देश में जाना-जाता है। वर्तमान में भौगोलिक दृष्टि से देखे तो किला चारों ओर खाई से घिरा हुआ है। किले में प्रवेश के लिए चार रास्ते इनमें एक बड़ा प्रवेश द्वार है। केन्द्र सरकार ने इस किले को अपने अधीन कर इसकी सुरक्षा और देखरेख के लिए चौकीदार और कर्मचारियों की तैनाती भी की गई है।
कल्चुरीवंश वंश के गोंड राजाओं के जमाने में लांजी के किले का निर्माण हुआ था। किले में पुरातन काल के अवशेष, महामाया का मंदिर पर्यटकों को अपनी ओर लुभाता है। कारण यहीं है कि किला पूरे देश में जाना-जाता है। वर्तमान में भौगोलिक दृष्टि से देखे तो किला चारों ओर खाई से घिरा हुआ है। किले में प्रवेश के लिए चार रास्ते इनमें एक बड़ा प्रवेश द्वार है। केन्द्र सरकार ने इस किले को अपने अधीन कर इसकी सुरक्षा और देखरेख के लिए चौकीदार और कर्मचारियों की तैनाती भी की गई है।
यह भी पर्यटन स्थल
पुरातत्व विदों के अनुसार जिले में गोमजी, सोमजी, शंकरगढ़, मॉ ज्वाला देवी पायली, नरसिंह मंदिर लामटा, ध्वस्त भग्नावशेष मऊ चांगोटोला, राजोबा देव मगरदर्रा पहाड़ी, लालबर्रा में कव्हरगढ़, तिरोड़ी में शिव मंदिर, कटंगी में शिव मंदिर जाम, देवी मंदिर बाहकल, किरनापुर में किरनाई मंदिर, बैहर में अन्य पुरातत्व अवशेष ऐसे हैं जिन्हें संरक्षित किए जाने प्रयास जारी है। ताकि नई पीढ़ी भी जिले के इतिहास को जान सकें। डीएटीसीसी की टीम, पर्यटन प्रबंधक और संग्रहालय की पूरी इन स्थलों को ट्रेक कर इनके जीर्णोद्वार व प्रचार प्रसार को लेकर गंभीरता से काम भी कर रहे हैं।
पुरातत्व विदों के अनुसार जिले में गोमजी, सोमजी, शंकरगढ़, मॉ ज्वाला देवी पायली, नरसिंह मंदिर लामटा, ध्वस्त भग्नावशेष मऊ चांगोटोला, राजोबा देव मगरदर्रा पहाड़ी, लालबर्रा में कव्हरगढ़, तिरोड़ी में शिव मंदिर, कटंगी में शिव मंदिर जाम, देवी मंदिर बाहकल, किरनापुर में किरनाई मंदिर, बैहर में अन्य पुरातत्व अवशेष ऐसे हैं जिन्हें संरक्षित किए जाने प्रयास जारी है। ताकि नई पीढ़ी भी जिले के इतिहास को जान सकें। डीएटीसीसी की टीम, पर्यटन प्रबंधक और संग्रहालय की पूरी इन स्थलों को ट्रेक कर इनके जीर्णोद्वार व प्रचार प्रसार को लेकर गंभीरता से काम भी कर रहे हैं।
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पर्यटन स्थलों की अपार संभावनाएं
संग्रहालय अध्यक्ष डॉ वीरेन्द्र सिंह गहरवार की माने तो जिले में पर्यटन स्थलों की भरमार है। तात्कालिक अंग्रेज सरकार ने 6 स्थल 1914 में संरक्षित किए थे। वर्तमान में केन्द्र सरकार के अधीनस्थ लांजी का किला, कोटेश्वर मंदिर, बैहर का शिव मंदिर, जोड़ा मंदिर, गढ़ी का किला, सोनखार में 53 नग पाषाण प्रतिमाएं जो सदा भादा के नाम से है, रायगढ़ पिपरवारा में मंदिर, राज्य सरकार ने 1988 को हट्टा की बावली, वहीं 2019 में धनसुवा का गोंसाई मंदिर आधिपत्य में लिया गया हैं। इनके अलावा गुप्तेश्वर महादेव पहाड़ी व झरना, गर्रा वॉटनिकल गायडन, बजरंगघाट, गांगुलपारा झरना, डूटी डेम, खराड़ी बांध, आदि क्षेत्र उपेक्षा के शिकार है। हर त्यौहारों व छुट्टीयों में यहां पर्यटनों का तांता लग जाता था। इन पर्यटन स्थलों में प्राकृतिक छटा को देखने जिले सहित अन्य जिलों और राज्यों के टूरिस्ट भी आया करते हैं।
पर्यटन स्थलों की अपार संभावनाएं
संग्रहालय अध्यक्ष डॉ वीरेन्द्र सिंह गहरवार की माने तो जिले में पर्यटन स्थलों की भरमार है। तात्कालिक अंग्रेज सरकार ने 6 स्थल 1914 में संरक्षित किए थे। वर्तमान में केन्द्र सरकार के अधीनस्थ लांजी का किला, कोटेश्वर मंदिर, बैहर का शिव मंदिर, जोड़ा मंदिर, गढ़ी का किला, सोनखार में 53 नग पाषाण प्रतिमाएं जो सदा भादा के नाम से है, रायगढ़ पिपरवारा में मंदिर, राज्य सरकार ने 1988 को हट्टा की बावली, वहीं 2019 में धनसुवा का गोंसाई मंदिर आधिपत्य में लिया गया हैं। इनके अलावा गुप्तेश्वर महादेव पहाड़ी व झरना, गर्रा वॉटनिकल गायडन, बजरंगघाट, गांगुलपारा झरना, डूटी डेम, खराड़ी बांध, आदि क्षेत्र उपेक्षा के शिकार है। हर त्यौहारों व छुट्टीयों में यहां पर्यटनों का तांता लग जाता था। इन पर्यटन स्थलों में प्राकृतिक छटा को देखने जिले सहित अन्य जिलों और राज्यों के टूरिस्ट भी आया करते हैं।