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समस्या…सिकलसेल पीडि़तों को ब्लड के साथ नहीं मिल रही ये दवा

जिला अस्पताल में ब्लड और हाइड्रोक्सी यूरिया कैप्सूल की कमी,परिजनों को जान बचाने करनी पड़ रही दौड़भाग

छिंदवाड़ाMay 09, 2024 / 08:20 pm

manohar soni

छिंदवाड़ा. जिला अस्पताल में अनुवांशिकी बीमारी सिकलसेल पीडि़तों को ब्लड और हाइड्रोक्सी यूरिया कैप्सूल न मिलने की शिकायत बढ़ जा रही है। उनके परिजनों को अस्पताल के बाहर तक दौड़धूप करनी पड़ रही है। अस्पताल प्रबंधन इस मामले को गंभीरता से नहीं ले पा रहा है। सामुदायिक व प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों में भी यह स्थिति देखी जा रही है।
अस्पताल के रिकार्ड में छिंदवाड़ा शहर समेत आसपास के करीब 450 पीडि़त बच्चों की संख्या है,जिन्हें ब्लड बैंक में मौजूद ब्लड यूनिट के 50 फीसदी से ज्यादा ब्लड की जरूरत पड़ती है। इसके अलावा वे हाइड्रोक्सी यूरिया नाम की कैप्सूल पर निर्भर है। अस्पताल के ब्लड बैंक में इस समय 91 यूनिट ब्लड उपलब्ध है। जबकि हर दिन दस से 15 पीडि़त हर दिन अपना कार्ड लेकर बैंक पहुंचते हैं। कर्मचारी उन्हें दानदाता लाने के लिए कह रहे हैं। कई बार ये न मिलने से उन्हें गंभीर परेशानी से जूझना पड़ता है। कई पीडि़तों की शिकायत है कि डॉक्टर की पर्ची लेकर भी जाओ तो ओपीडी दवा काउंटर में हाइड्रोक्सी यूरिया कैप्सूल नहीं मिल पा रही है। उन्हें खाली हाथ लौटा दिया जाता है। फिलहाल इससे उनके इलाज के इंतजाम बिगड़ते जा रहे हैं।
दावा..अभी 4 हजार कैप्सूल, दस हजार का आर्डर
अस्पताल में हाइड्रोक्सी यूरिया कैप्सूल न मिलने की शिकायत को स्टोर प्रभारी मनीष दुबे नकारते हैं। उनके मुताबिक अस्पताल में अभी 4 हजार कैप्सूल है। दस हजार का आर्डर दिया गया है। पीडि़तों को जितना उपयोग है, उतना ही ओपीडी दवा काउंटर से लेना चाहिए। इधर, ब्लड बैंक कर्मचारी कह रहे हैं कि गर्मी में ब्लड डोनेशन नहीं होने से कमी बनी हुई है। वे सिकलसेल पीडि़तों की मांग पूरी नहीं कर पा रहे हैं।
पिछड़ी जनजाति में अनुवांशिकी समस्या
इन मासूमों के इलाज की जिम्मेदारी शिशु रोग विशेषज्ञों पर है,इसलिए वे इस बीमारी के जिम्मेदार माता-पिता को मानते हैं। खासकर आदिवासी, भारिया समेत अन्य जनजाति और पिछड़ी जातियों में यह अनुवांशिक समस्या है। जिला मुख्यालय के अलावा तामिया,पातालकोट, जुन्नारदेव,बिछुआ, पांढुर्ना, परासिया समेत अन्य आदिवासी क्षेत्रों में इस बीमारी को देखा जा सकता है।
चिकित्सकों की राय में ये हैं बीमारी के लक्षण
यह एक अनुवांशिकी रोग है जो माता-पिता से बच्चों में आ जाती है। इस बीमारी में लाल रक्त कण अर्ध चंद्राकार या हसिए के जैसे हो जाते हैं। हाथ पैरों में दर्द,आंखों में पीलापन, थकान, खून की कमी, शारीरिक विकास में रुकावट, कमजोरी, वजन कम होना, त्वचा में पीलापन,चिड़ाचिड़ापन, बार-बार संक्रमण होना, ऊंचाई सामान्य से कम होना ये लक्षण है। यह जन्म से 5-6 माह में ही दिखने शुरू हो जाते हैं।
जांच- इसकी जांच सरकारी अस्पताल या प्राइवेट लैब में उपलब्ध। सिकलिंग टेस्ट,एचबी इलेक्ट्रो फोरोसिस, एचबी एलसी जांच से बीमारी का पता।
इलाज-ब्लड की कमी होने पर पीडि़त को बार-बार ब्लड की जरूरत। इसके अलावा वर्तमान में हाइड्रोक्सी यूरिया दवा भी उपलब्ध हो गई है।

ये भी महत्वपूर्ण..चार पीडि़त जिलों में छिंदवाड़ा भी

पूरे मप्र के सर्वेक्षण में शहडोल, डिंडोरी, मंडला और छिंदवाड़ा में यह बीमारी ज्यादा है। आनुवांशिक बीमारी बैगा, भारिया और सहरिया जनजातियों में प्रमुखता से देखी गई है। इन जनजातियों में शादियां अपनी ही जनजाति में करने का रिवाज है। इससे बीमारी पनप कर बच्चों की मौत के मुंह में धकेल रही है।। पातालकोट में निवासरत भारिया परिवारों में भी इस बीमारी को देखा गया है। इस पर मेडिकल टीम भी काफी रिसर्च कर चुकी है।

इनका कहना है..

जिला अस्पताल में हर दिन सिकलसेल पीडि़त बच्चों के केस आते हैं,जिन्हें ब्लड लगवाने और हाइड्रोक्सी यूरिया केप्सूल लिखनी पड़ रही है। यह आनुवांशिकी बीमारी जनजातियों में ज्यादा देखी गई है। विवाह पूर्व ही ब्लड जांच करा ली जाए तो इसे जींस स्तर पर रोका जा सकता है।
-डॉ.हितेश रामटेके,शिशु रोग विशेषज्ञ, जिला अस्पताल।

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