दरअसल, देशद्रोह कानून पर सुप्रीम कोर्ट में पिछले 9 महिने से सुनवाई चल रही है। सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार से अपना जवाब दाखिल करने को कहा, लेकिन केंद्र सरकार हर बार और समय मांगती रही। वहीं सर्वोच्च अदालत ने अपनी पिछले सुनवाई में कहा था कि केंद्र 5 मई को अपना जवाब दाखिल करे और इसके बाद सुप्रीम कोर्ट और समय नहीं देगी। इसी सुनवाई के दौरान गुरुवार को AG केके वेणुगोपाल ने सरकार का पक्ष रखा।
अटॉर्नी जनरल केके वेणुगोपाल ने कहा कि राजद्रोह कानून का दुरुपयोग हो रहा है. ऐसे में उन्होंने कोर्ट से जल्द दिशानिर्देश बनाने की अपील की। उन्होंने कहा, “हनुमान चालीसा पढ़ने पर राजद्रोह का मुकदमा दर्ज किया गया। ऐसे में सुप्रीम कोर्ट इस मामले में जल्द दखल दे।” उन्होंने कहा, “आपने देखा है कि देश में क्या हो रहा है। कल, किसी को हिरासत में लिया गया था क्योंकि वे चाहते थे कि हनुमान चालीसा का पाठ किया जाए, उन्हें अब जमानत पर रिहा कर दिया गया है।”
इसके साथ ही जस्टिस सूर्यकांत ने भी केदारनाथ का एक पुराना मामला उठाया। उन्होंने कहा कि क्या हम देशद्रोह के मामले को पुराने केदारनाथ मामले को बड़ी बेंच को भेजे बिना सुन सकते हैं ? इसका जवाब देते हुए कपिल सिब्बल ने कहा, “जी हां , रोजाना पत्रकारों व अन्य को देशद्रोह के मामलों में गिरफ्तार किया जा रहा है। ये अंग्रेजों के जमाने का कानून है।” इसके बाद SG ने कहा कि लेकिन केदारनाथ फैसला तो आजादी के बाद का है।
बता दें, बिहार के रहने वाले केदारनाथ सिंह पर 1962 में राज्य सरकार ने एक भाषण को लेकर देशद्रोह का मामला दर्ज कर लिया था। लेकिन इस पर हाईकोर्ट ने रोक लगा दी थी। केदारनाथ सिंह के मामले में सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों के संविधान पीठ ने भी अपने आदेश में कहा था कि देशद्रोही भाषणों और अभिव्यक्ति को सिर्फ तभी दंडित किया जा सकता है, जब उसकी वजह से किसी तरह की हिंसा या असंतोष या फिर सामाजिक असंतुष्टिकरण बढ़े।
इस पर SC ने एक महत्वपूर्ण फैसला दिया था। इस मामले में फेडरल कोर्ट ऑफ इंडिया से सहमति जताई थी। सुप्रीम कोर्ट ने केदारनाथ केस में व्यवस्था दी कि सरकार की आलोचना या फिर प्रशासन पर कमेंट भर से देशद्रोह का मुकदमा नहीं बनता। सुप्रीम कोर्ट की संवैज्ञानिक बेंच ने तब कहा था कि केवल नारेबाजी देशद्रोह के दायरे में नहीं आती।
कौन दे रहा है इस कानून को चुनौती?
देशद्रोह की वैधता को चुनौती देने वाली याचिकाएं एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया, अरूण शौरी, महुआ मोइत्रा और कुछ अन्य लोगों की ओर से दाखिल की गई हैं। जिस पर सीजेआई एन वी रमना, जस्टिस सूर्यकांत और जस्टिस हिमा कोहली की बेंच सुनवाई कर रही है। सुप्रीम कोर्ट ने इस पर केंद्र से इस पर जवाब दाखिल करने को कहा था लेकिन केंद्र सरकार ने इसके लिए और समय मांगा। केंद्र की अर्जी पर सुप्रीम कोर्ट ने 9 मई तक का समय दिया है। 10 मई को इस मामले पर फिर से सुनवाई होगी।
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क्या है देशद्रोह की धारा 124A?
भारतीय कानून संहिता (IPC) की धारा 124-ए में देशद्रोह की दी हुई परिभाषा के मुताबिक, अगर कोई भी व्यक्ति सरकार-विरोधी सामग्री लिखता है या बोलता है या फिर ऐसी सामग्री का समर्थन करता है, या राष्ट्रीय चिन्हों का अपमान करने के साथ संविधान को नीचा दिखाने की कोशिश करता है, तो उसे आजीवन कारावास या तीन साल की सजा हो सकती है।
कहां से आया नियम?
सैडीशन लॉ यानि देशद्रोह कानून ब्रिटिश सरकार की देन है। आजादी के बाद इसे भारतीय संविधान ने अपना लिया। देशद्रोह पर कोई भी कानून 1859 तक नहीं था। इसे 1860 में बनाया गया और फिर 1870 में इसे आईपीसी में शामिल कर दिया गया। आश्चर्यजनक तथ्य यह है कि अब ब्रिटेन ने ये कानून अपने संविधान से हटा दिया है, लेकिन भारत के संविधान में ये विवादित कानून आज भी मौजूद है।
सबसे पहले किस पर किया गया इस कानून का इस्तेमाल?
1870 में बने इस कानून का इस्तेमाल अंग्रेजों ने स्वतंत्रता आंदोलन के समय महात्मा गांधी और बाल गंगाधर तिलक जैसे नेताओं के खिलाफ किया था। महात्मा गांधी पर इसका इस्तेमाल वीकली जनरल में ‘यंग इंडिया’ नाम से आर्टिकल लिखे जाने की वजह से किया गया था। यह लेख ब्रिटिश सरकार के खिलाफ लिखा गया था।
किन-किन पर लगा देशद्रोह का कानून और क्या थे मामले?
– महात्मा गांधी और बाल गंगाधर तिलक पर इस कानून का इस्तेमाल देश की आजादी से पहले किया गया था। देश के आजाद होने के बाद इसका इस्तेमाल बिहार के रहने वाले केदारनाथ सिंह पर 1962 में किया गया। जिस पर हाई कोर्ट ने रोक लगा दी थी।
– 2010 को बिनायक सेन पर नक्सल विचारधारा फैलाने का आरोप लगाते हुए उन पर इस केस के तहत मुकदमा दर्ज किया गया। बिनायक के अलावा नारायण सान्याल और कोलकाता के बिजनेसमैन पीयूष गुहा को भी देशद्रोह का दोषी पाया गया था। इन्हें उम्रकैद की सजा सुनाई गई थी लेकिन बिनायक सेन को 16 अप्रैल 2011 को सुप्रीम कोर्ट की ओर से जमानत मिल गई थी।
– 2012 में काटूर्निस्ट असीम त्रिवेदी को उनकी साइट पर संविधान से जुड़ी भद्दी और गंदी तस्वीरें पोस्ट करने की वजह से इस कानून के तहत गिरफ्तार किया गया। यह कार्टून उन्होंने मुंबई में 2011 में भ्रष्टाचार के खिलाफ चलाए गए एक आंदोलन के समय बनाए थे।
– तो वहीं 2012 में हीं तमिलनाडु सरकार ने भी कुडनकुलम परमाणु प्लांट का विरोध करने वाले 7 हजार ग्रामीणों पर देशद्रोह की धाराएं लगाईं थी।
– 2015 में हार्दिक पटेल कन्हैया कुमार से पहले गुजरात में पाटीदारों के लिए आरक्षण की मांग करने वाले हार्दिक पटेल को गुजरात पुलिस की ओर से देशद्रोह के मामले के तहत गिरफ्तार किया गया था।
क्यों खत्म न हो देशद्रोह क़ानून?
पिछले साल सुनवाई के दौरान कोर्ट ने कहा था कि इसका भारी दुरुपयोग किया जा रहा है। सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार से पूछा था कि इस कानून को क्यों नहीं खत्म कर देना चाहिए, जिसका इस्तेमाल अंग्रेजों ने किया था। इसके जवाब में गृह मंत्रालय ने कहा कि “देशद्रोह के अपराध से निपटने वाले आईपीसी के तहत प्रावधान को ख़त्म करने का कोई प्रस्ताव नहीं है”। साथ ही सरकार ने कहा कि “राष्ट्रविरोधी, अलगाववादी और आतंकवादी तत्वों का प्रभावी ढंग से मुकाबला करने के लिए प्रावधान को बनाए रखने की आवश्यकता है”।
आपको बता दें, देशद्रोह के कानून को लेकर संविधान में विरोधाभास भी है, जिसे लेकर अक्सर विवाद उठते रहे हैं। दरअसल, जिस संविधान ने देशद्रोह को कानून बनाया है, उसी संविधान में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को भारत के नागरिकों का मौलिक अधिकार बताया गया है। मानवाधिकार और सामाजिक संगठनों के कार्यकर्ता इसी तर्क के साथ अपना विरोध जताते रहे हैं और आलोचनाएं करते रहे हैं। आपको जानकर आश्चर्य होगा कि देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने भी इसे ‘बेहद आपत्तिजनक और अप्रिय’ कानून बताया था।
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