नई दिल्ली

तलाक-ए-हसन की संवैधानिक वैधता को चुनौती देने वाली याचिका पर दिल्ली हाई कोर्ट ने जारी किया नोटिस

दिल्ली हाईकोर्ट ने तलाक-ए-हसन की संवैधानिक वैधता को चुनौती देने वाली याचिका पर नोटिस जारी किया है। मामले को अब रोस्टर बेंच द्वारा 18 अगस्त को सुनवाई के लिए पोस्ट किया गया है।

नई दिल्लीJun 27, 2022 / 03:15 pm

Archana Keshri

तलाक-ए-हसन की संवैधानिक वैधता को चुनौती देने वाली याचिका पर दिल्ली हाई कोर्ट ने जारी किया नोटिस

2 मई को सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दाखिल हुई थी, जिसमें एक मुस्लिम महिला ने तलाक-ए-हसन और एकतरफा वैवाहिक तलाक के बाकी सभी रूपों को असंवैधानिक घोषित करने का अनुरोध किया था। याचिकाकर्ता का कहना है कि वह तलाक-ए-हसन का शिकार हुई है। आज इस मामले में दिल्ली हाईकोर्ट ने तलाक-ए-हसन की संवैधानिक वैधता को चुनौती देने वाली इस याचिका पर नोटिस जारी किया है। जस्टिस दिनेश कुमार शर्मा की अवकाशकालीन पीठ ने दिल्ली पुलिस के साथ-साथ उस मुस्लिम व्यक्ति से जवाब मांगा, जिसकी पत्नी ने तलाक-ए-हसन के नोटिस को चुनौती देते हुए अदालत का दरवाजा खटखटाया है।
तलाक-ए-हसन के अनुसार कोई भी मुस्लिम व्यक्ति महीने में एक बार मौखिक या लिखित रूप में अपनी पत्नी को तलाक देता है और लगातार तीन महीने तक ऐसा करने पर तलाक औपचारिक रूप से मंजूर हो जाता है। बता दें, गाजियाबाद की रहने वाली बेनजीर हिना का कहना है कि तलाक-ए-हसन संविधान के खिलाफ है और मुस्लिम मैरिज एक्ट 1939 में एकतरफा तलाक देने का हक सिर्फ पुरुषों को ही है। बेनजीर ने मांग की है कि केंद्र सरकार सभी धर्मों, महिलाओं और पुरुषों के लिए एक समान तलाक का कानून बनाए।
बेनजीर हिना का आरोप है कि उनके पति ने दहेज के लिए उनका उत्पीड़न किया और विरोध करने पर एकतरफा तलाक का एलान कर दिया। वहीं दिल्ली हाईकोर्ट में तलाक-ए-हसन की संवैधानिक वैधता को चुनौती देने वाली मुस्लिम महिला की याचिका में दावा किया गया है कि उसके और उसके परिवार के खिलाफ किसी भी कार्रवाई से बचने के लिए, उसके पति ने तलाक-ए-हसन को प्राथमिकता दी और उसे पहला नोटिस दिया। मामले को अब रोस्टर बेंच द्वारा 18 अगस्त को सुनवाई के लिए पोस्ट किया गया है।

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याचिका में तर्क दिया गया है कि मुस्लिम पर्सनल लॉ (शरीयत) आवेदन अधिनियम, 1937 एक गलत धारणा देता है कि कानून तलाक-ए-हसन को एकतरफा अतिरिक्त न्यायिक तलाक होने की अनुमति देता है, जो याचिकाकर्ता और अन्य विवाहित मुस्लिम महिलाओं के मौलिग अधिकारों का उल्लंघन करता है। मुस्लिम मैरिज एक्ट 1939 का विघटन, तलाक-ए-हसन से याचिकाकर्ता की रक्षा करने में विफल रहता है। जिसे अन्य धर्मों की महिलाओं के लिए वैधानिक रूप से सुरक्षित किया गया है, और उस हद अनुच्छेद 14, 15, 21 और 25 और नागरिक अधिकारों और मानवाधिकारों पर अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन का उल्लंघन है।
याचिका में कहा गया है “तलाक-ए-हसन न केवल मनमाना, अवैध, निराधार, कानून का दुरुपयोग है, बल्कि एकतरफा अतिरिक्त-न्यायिक अधिनियम भी है जो सीधे अनुच्छेद 14, 15, 21, 25 और संयुक्त राष्ट्र कन्वेंशन का उल्लंघन है।” साथ ही याचिका में निर्देश के लिए प्रार्थना की गई है कि सभी धार्मिक समूह, निकाय और नेता जो इस तरह की प्रथाओं की अनुमति और प्रचार करते हैं, उन्हें याचिकाकर्ता को सरिया कानून के अनुसार कार्य करने और तलाक-ए-हसन को स्वीकार करने के लिए मजबूर नहीं करना चाहिए।

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