जस्टिस ने कहा, “उसे बच्चे को जन्म देने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता… उसके पास बच्चे को जन्म देने या न करने का विकल्प है।” बता दें, याचिकाकर्ता नाबालिग थी जिसने हत्या की थी और वह एक ऑब्जर्वेशन होम में हिरासत में थी। जांच अधिकारी को पता चला कि वह यौन शोषण के कारण गर्भवती हुई थी। रेप पीड़िता द्वारा आरोपी के खिलाफ प्रोटेक्शन आफ चिल्ड्रेन फ्रॉम सेक्सुअल अफेंसेस एक्ट 2012 (POCSO Act) के तहत अपराध भी दर्ज किया गया था।
याचिकाकर्ता ने दलील दी कि वह आर्थिक रूप से कमजोर है, और यौन शोषण के कारण भी उसे आघात लगा है, जिसका वह लगातार सामना कर रही है। उसने दलील दी कि उसकी परिस्थितियों को देखते हुए उसके लिए एक बच्चा पैदा करना मुश्किल होगा क्योंकि न तो वह आर्थिक रूप से सक्षम है और न ही मानसिक रूप से इसके लिए तैयार है। इसके अलावा, यह एक अवांछित गर्भावस्था भी थी।
पीठ ने रेप पीड़ित नाबालिक की 16 सप्ताह की गर्भावस्था को समाप्त करने की अनुमति मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेग्नेंसी एक्ट, 1971 की धारा 3 के आधार पर दी। इस एक्ट में गर्भावस्था को समाप्त करने का प्रावधान है। एक्ट के तहत चिकित्सक की राय के आधार पर 12 सप्ताह तक और दो चिकित्सकों की राय के आधार पर 20 सप्ताह तक गर्भपात किया जा सकता है, यदि गर्भवती महिला के जीवन और उसके मानसिक या शारीरिक स्वास्थ्य को गहरा खतरा है।
बता दें, भारतीय दंड संहिता,1860 के तहत स्वेच्छा से गर्भपात कराना दंडनीय अपराध है। भारत के संविधान में जीवन का अधिकार मौलिक अधिकार है। मगर रेप के कारण हुई अवांछित गर्भवस्था के कारण होने वाली पीड़ा गर्भवती महिला के मानसिक स्वास्थ्य के लिए गंभीर चोट होती है। साथ ही भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत महिलाओं को अपनी शारीरिक अखंडता की रक्षा करने का पूरा अधिकार होता है। इसको लेकर लंबे समय तक भारत में इस कानून में संशोधन की मांग होती रही।
इस मांग को देखते हुए केंद्र सरकार ने ‘द मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेगनेंसी (संशोधन) विधेयक 2020’ के तहत गर्भपात कराने की अधिकतम सीमा 20 हफ्ते से बढ़ाकर 24 हफ्ते कर दी। यह बिल महिलाओं की गरिमा और उनके अधिकारों की रक्षा करता है।
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हाईकोर्ट की पीठ ने कहा कि वर्तमान मामले में याचिकाकर्ता नाबालिग है और अविवाहित है। वह यौन शोषण की शिकार है। इसके अलावा, वह हत्या के एक अपराध के लिए एक निगरानी गृह में बंद है। साथ ही वह आर्थिक रूप से कमजोर भी है और ये गर्भावस्था अवांछित होने के कारण उसकी व्यक्तिगत स्वतंत्रता को भी आघात पहुंचा रहा है। पीठ ने कहा कि गर्भावस्था को समाप्त करने की अनुमति देने से इनकार करना उसे गर्भावस्था जारी रखने के लिए मजबूर करने के समान होगा जो न केवल उस पर बोझ होगा, बल्कि इससे उसके मानसिक स्वास्थ्य को भी गंभीर चोट पहुंचेगी। इन सभी चीजों को देखते हुए अदालत ने याचिकाकर्ता की गर्भावस्था को समाप्त करने की अनुमति दे दी।
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