क्या था विवाद
शिकायतकर्ता और आरोपी शादी करने वाले थे और उसके पिता ने रुपये भी दिए थे। मैरिज हॉल के लिए 75,000/- अग्रिम भुगतान किया गया, लेकिन यह शादी कभी नहीं हुई, क्योंकि उसे एक अखबार की रिपोर्ट से पता चला कि आरोपी ने किसी और से शादी कर ली है। आरोपी की ऐसी हरकत से दुखी होकर शिकायतकर्ता ने आरोपी और उसके परिवार के सदस्यों के खिलाफ आईपीसी की धारा 406/420/417 सहपठित धारा 34 के तहत FIR दर्ज कराई। अभियुक्त ने सीआरपीसी की धारा 482 के तहत एक आवेदन प्रस्तुत किया। हालांकि, उच्च न्यायालय ने उनके खिलाफ लंबित आपराधिक मामले को रद्द करने के लिए IPC की धारा 406 और 420 के तहत कार्यवाही को रद्द करते हुए धारा 417 IPC के तहत मामले को रद्द करने से इनकार कर दिया। आखिरकार आरोपियों ने हाई कोर्ट के फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया।
कोर्ट ने सुनाया ये फैसला
सुप्रीम कोर्ट ने पाया कि आरोपी का शुरू से ही शिकायतकर्ता और उसके पिता को धोखाधड़ी या बेईमानी से धोखा देने का कोई इरादा नहीं था। कोर्ट ने कहा कि शादी का प्रस्ताव शुरू करने और फिर प्रस्ताव वांछित अंत तक नहीं पहुंचने के कई कारण हो सकते हैं। अदालत ने कहा कि ऐसे मामलों में धोखाधड़ी का अपराध साबित करने के लिए अभियोजन पक्ष के पास विश्वसनीय और भरोसेमंद सबूत होने चाहिए। हालांकि, अभियोजन पक्ष द्वारा धारा 417 के तहत अपराध को साबित करने के लिए ऐसा कोई सबूत पेश नहीं किए जाने के बाद, अदालत ने कहा कि धारा 417 के तहत अपराध नहीं बनता है। नतीजतन, आईपीसी की धारा 417 के तहत आपराधिक कार्यवाही रद्द की जाती है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि बुक किए गए मैरिज हॉल में शादी न करना IPC की धारा 417 के तहत दंडनीय धोखाधड़ी का अपराध नहीं है।