पिछले चुनाव में 28 में से एक समर्थित निर्दलीय सहित 27 सीटें जीतने वाला एनडीए 19 सीटों पर ही जीत हासिल कर पाया। भाजपा ने 17 सीटें जीतीं तो दो सीटें सहयोगी जेडी-एस के खाते में गईं। चुनाव प्रचार में भाजपा ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नाम और काम को ही मुद्दा बनाया था। मुख्यमंत्री एन. सिद्धारामैया के नेतृत्व में कांग्रेस ने राज्य सरकार की गारंटियों को प्रमुख मुद्दा बनाया था। महिलाओं को हर माह 2000 रुपए, बस में मुफ्त सफर, 200 यूनिट फ्री बिजली जैसी गारंटियों की पूरे प्रदेश, खासकर ग्रामीण व अर्द्धशहरी क्षेत्रों में जबरदस्त चर्चा थी। इसका कांग्रेस को लाभ भी मिला लेकिन अन्य कारकों ने अपेक्षित परिणाम नहीं दिए।
कांग्रेस: गारंटियों का अति आत्मविश्वास और तुष्टीकरण के आरोप पड़े भारी
कांग्रेस ने सीटों की संख्या एक से बढ़ा कर नौ तो कर ली, पर ठीक एक साल पहले विधानसभा चुनाव में भाजपा को बड़े बहुमत से सत्ताच्युत कर सरकार बनाने वाले मुख्यमंत्री सिद्धारामैया और ख्यात पॉलिटिकल मैनेजर डिप्टी सीएम डीके शिवकुमार लोकसभा चुनाव में भाजपा को परास्त नहीं कर पाए। कांग्रेस को 15-17 सीटें मिलने की उम्मीद थी लेकिन गारंटियों पर अति आत्मविश्वास और तुष्टीकरण के आरोपों ने उसकी आशाओं पर पानी फेर दिया। राजधानी बेंगलूरु की ग्रामीण सहित चारों सीटें कांग्रेस ने गंवा दी। पिछले चुनाव में जीती इकलौती बेंगलूरु ग्रामीण सीट पर जीते डिप्टी सीएम शिवकुमार के भाई डीके सुरेश चुनाव हार गए। क्षेत्र में करवाए गए भरपूर विकास कार्याें के बावजूद सुरेश की छवि पर उनके प्रतिद्वंद्वी भाजपा उम्मीदवार, चर्चित हार्ट सर्जन और पूर्व सीएम एचडी देवेगौड़ा के दामाद डॉ. सी.एन. मंजूनाथ की छवि व सेवा भारी पड़ी। हुबली में दो युवतियों की मौत के बाद सीएम और गृह मंत्री के बयानों से भाजपा के तुष्टीकरण के आरोपों को बल मिला। चुनाव के दौरान यह प्रकरण पूरे प्रदेश में छाया लेकिन खास तौर पर पहले से कमजोर उत्तरी कनार्टक में इस मामले ने कांग्रेस की स्थिति नहीं सुधरने दी। हैदराबाद-कर्नाटक क्षेत्र के कृषि प्रधान व ग्रामीण इलाके की बेल्लारी, कोप्पल, रायचूर, कलबुर्गी और बीदर सीटों पर कांग्रेस सरकार की गारंटियों और भाजपा में आंतरिक असंतोष के कारण कांग्रेस को सफलता मिली। सीएम सिद्धारामैया के आखिरी चुनाव के वादे और खुद की कुर्सी की दुहाई देने के बावजूद उनके गृह क्षेत्र मैसूरु में पार्टी चुनाव हार गई।
भाजपा: मोदी के सहारे में लगा आंतरिक असंतोष का घुन
प्रदेश में भाजपा सिर्फ और सिर्फ पीएम मोदी और केंद्र सरकार के राममंदिर, तीन तलाक, मुफ्त राशन जैसे बड़े काम गिनाने के भरोसे थी। शहरी क्षेत्रों में मोदी के नाम और काम के साथ हिंदुत्व के तड़के ने भाजपा को सफलता दिलाई पर ग्रामीण व अर्द्धशहरी क्षेत्रों में कांग्रेस की गारंटियां भारी पड़ीं। टिकट वितरण से लेकर चुनाव संचालन तक में पार्टी के एक खास वर्ग के प्रभुत्व और आंतरिक गुटबाजी के कारण भाजपा को खमियाजा भुगतना पड़ा। राजनीतिक प्रेक्षक मानते हैं कि प्रदेश में चुनाव की कमान दिग्गज येड्डियुरप्पा परिवार को सौंपने से भाजपा को नुकसान के बजाय फायदा ज्यादा हुआ। टिकटों में येड्डी परिवार के प्रभाव के कारण अनेक सीटों पर असंतोष हुआ पर लिंगायत मतों का एकमुश्त समर्थन और बेहतर चुनाव संचालन के कारण भाजपा को ज्यादा नुकसान नहीं हुआ। बेटे को टिकट नहीं देने से नाराज पार्टी के नेता केएस ईश्वरप्पा तो बगावत कर शिमोगा से येड्डी के बेटे बीवाइ राघवेंद्र के खिलाफ चुनाव मैदान में ही उतर गए। उनकी जमानत जब्त हुई पर उनके बयानों से पार्टी को माहौल का नुकसान हुआ। भाजपा ने बेंगलूरु की चारों सीटों सहित मैसूरु, धारवाड़ जैसी सीटें जीतीं लेकिन उत्तरी कर्नाटक में टिकट वितरण में आंतरिक असंतोष के कारण कुछ सीटें गंवाई। भाजपा को जेडी-एस से गठबंधन के कारण वोक्कालिगा वोटों का फायदा मिला।
जेडी-एस का अस्तित्व बचा
प्रदेश में सरकार चला चुकी पूर्व पीएम एचडी देवेगौड़ा की जेडी-एस के लिए यह चुनाव अस्तित्व की लड़ाई था। भाजपा से गठबंधन के कारण जेडी-एस ने तीन में से दो सीटें जीत लीं। मंड्या में पूर्व सीएम एचडी कुमारस्वामी ने जीत दर्ज की लेकिन हासन की पारिवारिक सीट से यौन शोषण कांड में फंसे देवेगौड़ा के पोते प्रज्वल रेवन्ना चुनाव हार गए।
दलों की आंतरिक राजनीति लेगी करवट
कर्नाटक में लोकसभा चुनाव परिणाम से भाजपा-कांग्रेस की आंतरिक राजनीति नई करवट ले सकती है। सत्तारूढ़ कांग्रेस में सीएम सिद्धारामैया और डिप्टी सीएम डीके शिवकुमार के बीज असहज संबंध और कुर्सी की लड़ाई जगजाहिर है। हालांकि मैसूरु क्षेत्र में पार्टी की पराजय सीएम के लिए और बेंगलूरु ग्रामीण से अपने भाई की हार डिप्टी सीएम को बराबरी के स्तर पर लाती हैं लेकिन आने वाले समय में पार्टी में उठापटक हो सकती है। उधर, येड्डी परिवार के प्रभुत्व के खिलाफ पार्टी में आवाजें उठनी तय हैं लेकिन भाजपा के पास फिलहाल मौजूदा नेतृत्व से ज्यादा दमदार विकल्प तलाशना आसान नहीं है।