अफगानिस्तान में सरकार क्यों नहीं बना पा रहा तालिबान, जानिए कौन-कौन सी अड़चनें हैं उसके सामने
दरअसल, दक्षिण और दक्षिण पश्चिम एशिया में अमरीकी खुफिया एजेंसी सीआईए का ऑपरेशन संभालने वाले डगलस लंदन ने स्पष्ट तौर पर कहा है कि काबुल में तालिबान के उभार को लेकर भारत के लिए चिंतित होने की कई तमाम वजहें हैं। उन्होंने यह भी बताया कि तालिबान को पाकिस्तान का पूरी तरह समर्थन है और इस वजह से एशिया में सुरक्षा स्थिति ज्यादा जटिल हो गई है। यही नहीं, उन्होंने यह भी कहा कि अफगानिस्तान में जो हुआ वह खुफिया विभाग की असफलता नहीं बल्कि, इससे कहीं बड़ी लापरवाही है। उन्होंने अमरीका और तालिबान के बीच 2020 के शांति समझौते को अमरीका की ओर से किया गया अब तक का सबसे खराब समझौता बताया।अफगानिस्तान में तालिबान सरकार गठन को लेकर पाकिस्तान ज्यादा उत्साह दिखा रहा है। वह चीजों में अपनी भूमिका साबित कर रहा है। पाकिस्तान की नीतियां पहले से ही अलग-अलग जिहादी समूहों को समर्थन देने की रही है। तालिबान भी उनमें से एक है। इसे भारत के साथ पाकिस्तान की दुश्मनी और बदले की कार्रवाई के नजरिए से देखा जाना चाहिए। पाकिस्तान के समर्थन से ये जिहादी समूह नियंत्रण से बाहर भी जा सकते हैं। खतरा यहां तक है कि जिहादी समूह खुद पाकिस्तान को पूरी तरह नियंत्रित कर वहां इस्लामिक स्टेट का गठन कर सकते हैं और यह बेहद खतरनाक साबित हो सकता है।
डगलस के अनुसार, भारत को चीन से तनाव के कारण भी चिंता करने की जरूरत है। चीन पाकिस्तान का दोस्त है। अफगानिस्तान में पाकिस्तान की मदद से वह निवेश और उस पर नियंत्रण करने का इच्छुक दिखाई दे रहा है। वैसे भी चीन में उइगर मुस्लिमों की प्रताडऩा का मुद्दा है, लेकिन तालिबान उनके पक्ष में नहीं आ रहा है। यह एक तरह से छिपा संकेत है कि तालिबान और चीन अंदर ही अंदर करीब आ रहे हैं। तालिबान के नेता ऐसे जिहादी समूहों और देशों को समर्थन तथा बढ़ावा दे रहे हैं जिनके साथ भारत की लंबी लड़ाई चली आ रही है। वैसे ये संगठन न सिर्फ भारत बल्कि, दक्षिण एशिया के लिए भी खतरा हैं।
तालिबान अब अफगानिस्तान की सत्ता पर काबिज है। वह आतंकी समूहों के साथ अपने संबंध खुलकर दिखा रहा है और यह बता रहे हैं कि वे इन्हें खत्म करने की नहीं सोच रहे। कश्मीर में में भारत के खिलाफ सक्रिय कई आतंकी संगठनों से भी तालिबान नेता काफी नजदीकी दिखा रहे हैं और बैठकें कर रहे हैं। कश्मीर में भारत के खिलाफ लडऩे वाले आतंकी समूहों जिनमें लश्कर-ए-तैयबा, जैश-ए-मोहम्मद भी शामिल हैं, ये सभी उनकी हमेशा जरूरत बने रहेंगे। भारत और पाकिस्तान के जनरल ईरान और मध्य एशिया के देशों को साथ आना होगा और ऐसा होना अभी संभव नहीं है, जब तक कि सभी को इनसे खतरा महसूस नहीं होने लगे। हो सकता है ये देश बाद मे यह मानने को मजबूर हो जाएं कि रणनीति में बदलाव उनकी बेहतरी के लिए ही है और इन्हें मिलकर काम करना चाहिए।
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देश में मुस्लिम समुदाय का नाराज होनाडगलस लंदन की मानें तो पाकिस्तान के हुक्मरानों को मानना होगा कि समय अब भी उनके साथ नहीं है, जब वे तालिबान का साथ दे रहे हैं, क्योंकि यहीं संगठन एक दिन इस्लामाबाद के लिए भी खतरे का सबब बन जाएगा। वैसे पाकिस्तान फिलहाल पूरी कोशिश करेगा कि माहौल भारत के खिलाफ बने। सीएए और एनआरसी का मुद्दा उठाकर वह तालिबान को उकसाएगा कि भारत में मुस्लिम समुदाय के साथ सही व्यवहार नहीं हो रहा है और यह समुदाय वहां की सरकार से नाराज है। इसे सहानुभूति की जरूरत बताकर तालिबान को आगे आने के लिए उकसाया जा सकता है।
तालिबान की सत्ता में इस बार हक्कानी नेटवर्क भी शामिल हो रहा है। जबकि हक्कानी और आईएसआई के संबंध जगजाहिर हैं। कहा यह भी जाता है कि हक्कानी नेटवर्क और आईएसआई दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू है। आईएसआई के समर्थन के बिना तालिबान या हक्कानी अपने लोगों को नहीं बचा सकते थे और हथियार की बड़ी जरूरत वहां से पूरी हो रही है। दरअसल, हक्कानी नेटवर्क अपराधियों का गठजोड़ है, जो ड्रग्स, वसूली और रियल एस्टेट कारोबार में शामिल है और वहां से पैसा जुटाता है। तालिबान चाहे जितना भी उदारवादी छवि का दिखावा करे या फिर भारत से बेहतर संबंध का ढोंग करे, लेकिन सरकार में शामिल हो रहा हक्कानी नेटवर्क भारत के प्रति कभी नरम रुख नहीं अपनाएगा।