इसके साथ ही हाईकोर्ट ने भोपाल के एक फैमिली कोर्ट के उस फैसले को रद्द कर दिया, जिसमें नवंबर 2014 के अपने फैसले में एक ऐसे व्यक्ति को तलाक देने से इनकार कर दिया था, जिसमें तर्क दिया था कि उसकी पत्नी लंबे समय से बिना किसी वैध कारण के शारीरिक संबंध बनाने से इनकार करके उसे मानसिक क्रूरता का शिकार बना रही है।
बिना किसी वैध कारण यौन संबंध न बनाना मानसिक क्रूरता-हाईकोर्ट
बार एंड बेंच की रिपोर्ट के अनुसार, पति द्वारा दायर याचिका पर सुनवाई करते हुए मध्य प्रदेश हाईकोर्ट ने कहा कि हम मानते हैं कि बिना किसी शारीरिक अक्षमता या वैध कारण के काफी समय तक यौन संबंध बनाने से एकतरफा इनकार करना मानसिक क्रूरता हो सकता है।
बता दें कि मध्य प्रदेश के रहने वाले एक आदमी ने कोर्ट को बताया कि 12 जुलाई, 2006 को अपनी शादी की तारीख से लेकर 28 जुलाई, 2006 को उसके भारत छोड़ने तक पत्नी ने शारीरिक संबंध बनाकर विवाह को पूर्ण करने से इनकार कर दिया।
संबध बनाने की कोशिश पर दी धमकी
पति ने कोर्ट को बताया कि उसकी पत्नी ने ई-मेल के जरिए धमकी दी थी कि वह आत्महत्या कर लेगी और उसके साथ-साथ माता-पिता के खिलाफ आईपीसी की कई धाराओं के तहत झूठा मुकदमा भी दर्ज करा दिया। ट्रायल कोर्ट ने पत्नी की याचिका का समन जारी किया, लेकिन वह कोर्ट में अनुपस्थित रही।
इसके बाद ट्रायल कोर्ट ने प्रतिवादी के खिलाफ एकपक्षीय कार्यवाही की और आक्षेपिक निर्णय पारित कर दिया, जिसके तहत अपीलकर्ता द्वारा दायर आवेदन को इस आधार पर खारिज कर दिया गया कि अपीलकर्ता तलाक की डिक्री देने के लिए अधिनियम, 1955 में उपलब्ध किसी भी आधार को साबित करने में विफल रहा।
हाईकोर्ट ने पति के पक्ष में सुनाया फैसला
पीठ ने सुनवाई के दौरान टिप्पणी करते हुए कहा, ‘शादी न करना और शारीरिक अंतरंगता से इनकार करना मानसिक क्रूरता के बराबर है.’ हाईकोर्ट ने कहा कि पत्नी द्वारा शारीरिक अंतरंगता से इनकार करने पर पति द्वारा लगाया गया मानसिक क्रूरता का आरोप साबित हो गया है और ट्रायल कोर्ट को फैसला सुनाते वक्त विचार करना चाहिए था। हाईकोर्ट की पीठ ने यह टिप्पणी सुखेंदु दास बनाम रीता मुखर्जी के मामले पर किया।
इसके साथ ही अदालत ने ये भी पत्नी यह बात भलीभांति जानती थी कि शादी के बाद कुछ ही समय में पति भारत छोड़ देगा। इस अवधि के दौरान, पति को शादी संपन्न होने की उम्मीद थी, लेकिन पत्नी ने इससे इनकार कर दिया और निश्चित रूप से पत्नी का यह कृत्य मानसिक क्रूरता के बराबर है। इसलिए, हाईकोर्ट पारिवारिक अदालत के फैसले को रद्द करती है।