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कैसे जुड़ा कांग्रेस से ‘पंजा’ और भाजपा से ‘कमल’, पार्टी हो या उम्मीदवार, चुनाव चिह्न ही पहचान का आधार

1950 के दशक से ही भारत में कई मतदाताओं के लिए सबसे बड़ी समस्या यह थी कि मतपत्रों पर उम्मीदवारों की पहचान कैसे की जाए। इस तरह चुनाव आयोग पर हर पार्टी और हजारों निर्दलीय उम्मीदवारों के लिए चुनाव चिह्न आवंटित करने का श्रमसाध्य कार्य आ गया। पढ़िए नितिन मित्‍तल की विशेष रिपोर्ट…

नई दिल्लीApr 29, 2024 / 07:51 am

Paritosh Shahi

आपको ध्यान होगा कि चुनाव से पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भारतीय जनता पार्टी के पक्ष में मतदाताओं से मतदान की अपील करते हुए कहा था कि वे यह मानकर चलें कि हर सीट पर कमल ही भाजपा का प्रत्याशी है। प्रत्याशी हो या पार्टी, मतदाताओं के बीच पहचान के लिए चुनाव चिह्न की जरूरत आज भी वैसी ही है, जैसी यह आजादी के बाद पहले आम चुनाव के वक्त थी। चूंकि उस समय देश में साक्षरता दर 18 प्रतिशत के आसपास यानी बेहद कम थी, ऐसे में चुनाव कराने के लिए चुनाव चिह्न की जरूरत समझी गई।
1950 के दशक से ही भारत में कई मतदाताओं के लिए सबसे बड़ी समस्या यह थी कि मतपत्रों पर उम्मीदवारों की पहचान कैसे की जाए। इस तरह चुनाव आयोग पर हर पार्टी और हजारों निर्दलीय उम्मीदवारों के लिए चुनाव चिह्न आवंटित करने का श्रमसाध्य कार्य आ गया। तय किया गया कि चुने गए चिह्न ऐसे होने चाहिए जिन्हें एक औसत मतदाता आसानी से समझ सके, याद रख सके और पहचान सके। अधिकारियों की एक टीम बैठती और टेबल, टेलीफोन, अलमारी और टूथब्रश जैसी दैनिक उपयोग की वस्तुओं के बारे में चर्चा करती – जिन्हें राजनीतिक दलों द्वारा प्रतीकों के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता था। इसके बाद टीम में शामिल ड्राफ्ट्समैन एम.एस. सेठी उन वस्तुओं की ड्रॉइंग तैयार करते थे।

जानवरों पर चुनाव चिह्न हुए बंद, अब कुछ ही चलन में

1992 में सेवानिवृत्त होने तक सेठी चुनाव चिह्नों की ड्रॉइंग बनाते रहे और उनके बनाए हुए चुनाव चिह्न आज भी भारत में चुनावी मशीन का अहम हिस्सा बने हुए हैं। आज नई पार्टियां स्पष्ट चित्र और वर्णनात्मक नामों के साथ अधिकतम तीन प्रतीक चुनाव आयोग को सुझा सकती हैं जिनमें से चुनाव आयोग किसी एक को उन्हें सौंप सकता है। चुनाव आयोग के अनुसार, अब इन प्रतीकों में जानवरों को नहीं दर्शाया जा सकता और न ही सांप्रदायिक या धार्मिक प्रतीकों को इनमें शामिल किया जा सकता है। हालांकि अब भी कुछ चिह्न चलन में हैं जैसे बसपा का हाथी और महाराष्ट्रवादी गोमांतक पार्टी का शेर।

कैसे जुड़ा भाजपा से ‘कमल’

भाजपा की नींव 1980 में पड़ी। यह 1951 में गठित जनसंघ का नया संस्करण थी, जिसके सदस्यों ने 1977 में तत्कालीन केंद्र सरकार के गठन के लिए जनता पार्टी में विलय कर लिया था। जनसंघ का चुनाव चिह्न ‘दीपक’ था जो अंधकार को दूर भगाने के अटल बिहारी वाजपेयी के शब्दों को चरितार्थ करता था। जनता पार्टी में विलय के बाद इसका चुनाव चिह्न ‘हलधर किसान’ हो गया। 1980 में बम्बई की रैली में भाजपा के पहले अध्यक्ष ने कहा था, ‘अंधेरा छटेगा, सूरज निकलेगा, कमल खिलेगा।’ इस तरह भाजपा ने ‘कमल’ को चुना।

कांग्रेस से ‘पंजा’

शुरुआत में कांग्रेस का चुनाव चिह्न ‘दो बैलों की जोड़ी’ था। कांग्रेस में फूट पड़ी तो जगजीवन राम की कांग्रेस (आर) को असली पार्टी माना गया, निजलिंगप्पा की कांग्रेस (ओ) को नहीं। सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव आयोग के आदेश और पुराने चुनाव चिह्न के इस्तेमाल पर रोक लगा दी। तब कांग्रेस (ओ) को चरखा व कांग्रेस (आर) को ‘बछड़ा व गाय’ का चुनाव चिह्न दिया गया। आपातकाल के बाद कांग्रेस (आर) फिर टूटी और कांग्रेस (इंदिरा) का जन्म हुआ। चुनाव चिह्न ‘बछड़ा व गाय’ फ्रीज हो गया और कांग्रेस (आइ) ने ‘पंजा’ चुनाव चिह्न चुन लिया।

भाकपा से ‘मकई की बाली और हंसिया’

भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी 1951 में हुए पहले आम चुनाव से लेकर अब तक संभवतः एकमात्र ऐसी पार्टी है जो मूल चुनाव चिह्न ‘मकई की बाली और हंसिया’ का उपयोग जारी रखे हुए है। यह चुनाव चिह्न उस समय के अन्य प्रतीकों के साथ मुख्यतः कृषि पर निर्भर मतदाताओं का प्रतिनिधित्व करने की कोशिश का हिस्सा था।

माकपा से हथौड़ा, दरांती और सितारा

भाकपा से अलग होने पर और आंध्र प्रदेश, केरल और पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनावों में आवश्यक संख्या में सीटें जीतने के बाद 1964 में माकपा को मान्यता दी गई थी। पार्टी ने साम्यवाद के प्रतीक राष्ट्र सोवियत रूस से अपना चुनाव चिह्न हथौड़ा, दरांती और सितारा लिया, जो सार्वभौमिक रूप से मार्क्सवादी विचारधारा का प्रतीक है।

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