विख्यात आलोचक प्रो. नामवर सिंह कहते हैं कि हिंदी हमारे देश की राजभाषा भी है और राष्ट्रभाषा भी। इसके बावजूद हिंदी का फलक जितना व्यापक होना चाहिए था, नहीं हो सका। अंग्रेजी या किसी अन्य भाषा का वर्चस्व चाहे जितना बढ़ जाए, हिंदी की जड़ें इतनी गहरी हैं कि उस पर कोई प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ने जा रहा है। हिंदी के प्रचार-प्रसार के लिए काम किया जाना चाहिए।
हिंदी के कहानीकार कन्हैया लाल नंदन कहते हैं कि हिंदी भाषा को हिंदी जगत में ही उपेक्षा की दृष्टि से देखा जाता है। हिंदी भाषी ही इसे दोयम दर्जे की भाषा मानते हैं। इसके दो कारण हैं। एक तो इसे रोजी-रोटी से नहीं जोड़ा गया, दूसरे इसे कभी स्वाभिमान से जोड़ने की कोशिश नहीं की गई। ऐसे में लोगों के मन में इस बात को लेकर आशंका ज्यादा रहती है कि हिंदी को अपनाकर उनका आखिर क्या भला होगा।
उपन्यासकार मैत्रेयी पुष्पा कहती हैं कि सरकार ने हिंदी को राजभाषा घोषित कर रखा है। घोषणा अलग चीज है और उस पर अमल अलग बात है। जब तक घोषणाओं को व्यवहार में लाने की कोशिश नहीं की जाती, तब तक किसी घोषणा का उद्देश्य पूरा नहीं हो पाता। देश में अंग्रेजी की लोकप्रियता बढ़ती जा रही है। हिंदी का विकास करना है तो हमें उदारता दिखानी होगी।
प्रख्यात साहित्यकार काशी नाथ सिंह कहते हैं कि हिंदी का बाल भी बांका नहीं होने वाला है। अंग्रेजी उसका कुछ नहीं बिगाड़ पाएगी। हिंदी को देश की संस्कृति में, यहां की आबो-हवा में पूरी तरह से रची बसी हुई है। इसे यहां की संस्कृति से जुदा कर पाना आसान नहीं है। आसान क्या, ऐसा कर पाना नामुमकिन है। अंग्रेजी को बढ़ावा मिलने की वजह आर्थिक है। वह हिन्दी का विकल्प नहीं है।