आज ऑफिस आने के लिए जब मैं बस में चढ़ी तो रोज़ की ही तरह बस बिल्कुल फुल थी, उसमें पांव रखने की जगह नहीं थी लेकिन जैसे-तैसे अंदर जगह बनाकर गई और टिकट लेने लगी तो कंडक्टर ने मुझसे पैसे नहीं लिए और टिकट दे दी। मैंने पूछा ‘पैसे क्यों नहीं’ तो बोले की आज महिला दिवस है, पैसे नहीं लगेंगे (Discount in bus fare On International Women’s day)। इस पर मेरे पास में ही खड़ी एक बुजुर्ग महिला ने कहा कि ‘बेटा महिला दिवस पर टिकट के पैसे तो नहीं लिए, लेकिन हमें बैठने के लिए सीट भी नहीं दी, य़े कैसे महिला दिवस है?’
फिर क्या था, उन बुजुर्ग महिला के ऐसा कहने के बाद तो बस में महिला दिवस (International Women’s day) पर चर्चा शुरू हो गई। उन बुजुर्ग महिला के ऐसे कहने के बाद एक सज्जन ने उन्हें अपनी सीट दे दी। शायद उनके मुंह से सुनकर उन्हें थोड़ी लज्जा आ गई हो।
उसी बस में सफर कर रही एक और महिला से जब इस टिकट छूट पर मैंने सवाल किया तो कहने लगीं कि ‘एक दिन टिकट के पैसे ना लेकर महिला दिवस तो सरकार ने मना लिया लेकिन हम जो रोज-रोज इन बसों में भयंकर भीड़ के बीच दब-दबा कर नारकीय सफर करते हैं उसका क्या? क्या किसी ने उसके बारे में सोचा है? क्या तब ये महिलाएं याद नहीं आतीं?’
उन महिला की बात अभी ख़त्म नहीं हुई थी कि कॉलेज जा रही एक लड़की ने तपाक से बोला कि ‘हमें रोज़ इसी तरह बस में सफर करना होता है। भले ही बस की आधे से ज़्यादा सीट पर महिला सीट लिखा होता है लेकिन इनमें से आधी सीटों पर भी बमुश्किल महिलाएं सफर करती होंगी क्योंकि पहले से पुरुष इन पर विराजमान रहते हैं और इतना भी नहीं कि किसी जरूरतमंद महिला को देखकर उसे सीट दे दें।’
बात तो सोचने वाली थी। फिर इन सवालों की झड़ी में एक सवाल कंडक्टर के लिए दाग दिया गया कि सिर्फ सवारियों की टिकट लेना ही उनका काम है, क्या महिला सवारियों या जरूरतमंद सवारियों की सीट या उनकी सुविधा के लिए उनकी कोई ड्यूटी नहीं? तो कंडक्टर ने बड़े अखरते हुए जवाब दिया कि मैडम यहां अगर सीटों के लिए हम लगने लगे तो कट गई टिकट..हो गया इनका सफर…और सीट के लिए कंडक्टर क्यों बात करे। ये महिलाओं जो आज खुद को हर क्षेत्र में आगे बोलती हैं…पुरुषों से कंधा से कंधा मिलाकर चलने की बात करती हैं तो क्या वो खुद के लिए एक सीट नहीं ले सकतीं… और बसों में भीड़ का कुछ नहीं सकते। ये तो सरकार के ऊपर है कि वो राज्य की महिलाओं को किस तरह का सफर देना चाहते हैं, टिकट में छूट देकर या फिर इनके लिए बसों का इंतजाम कराकर..’।
कंडक्टर के इस जवाब के बाद थोड़ी देर उस वक्त शांति सी हो गई। सिर्फ बस के इंजन की आवाज और हवाओं की सांय.सांय..तैरने लगी थी। दरअसल बसों की ये स्थिति सिर्फ एक शहर या एक राज्य की नहीं बल्कि देश के तमाम राज्यों की है। आंध्रप्रदेश, तेलंगाना, तमिलनाडु, कर्नाटक, मध्यप्रदेश, दिल्ली, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र सभी जगह कमोबेश यही हालात हैं। सरकारें भले ही बड़े-बड़े दावे करती हों कि उन्होंने महिलाओं के कितनी सुविधा दी है लेकिन असल में महिलाओं के हालात ये है जो खुद वो बता रही हैं। शासन-प्रशासन को चाहिए कि आधी आबादी की सुविधा और सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए बसों का संचालन करे ताकि अपने सपनों को बुनने के लिए वो जिस मंजिल पर जा रही हैं उसे उतने ही बेहतर तरीके से पा सकें।