जस्टिस हरिशंकर ने कहा कि यह विद्यार्थी का कर्तव्य है कि वह कम से कम समझदारी से लिखे। परीक्षकों को समझ में नहीं आने वाली लिखावटों का मूल्यांकन करने के लिए नहीं कहा जा सकता। ऐसे मामलों में अदालत का दृष्टिकोण चौकस और केस की परिस्थितियों पर निर्भर होना चाहिए। कोर्ट भी लिखावट को समझ से परे मानती है तो उसे परीक्षार्थी को राहत देने से इनकार करना चाहिए। उच्च शिक्षा संस्थानों में उत्तर पुस्तिकाओं की जांच करने वाले परीक्षकों के सामने कठिन काम होता है। यह सुनिश्चित करना परीक्षार्थी का कर्तव्य है कि उनके उत्तर ठीक से पढ़ने योग्य हों।
टाइपशुदा प्रति को जांचने के निर्देश
दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्र की इस उत्तर पुस्तिका पर परीक्षक ने टिप्पणी लिखी कि ‘बहुत खराब लिखावट, मुश्किल से ही कुछ पढ़ सका।’ कोर्ट ने आदेश में कहा कि परीक्षा प्रणाली खराब लिखावट के लिए छात्रों को दंडित करने की अनुमति नहीं देती है। मौजूदा मामले में मूल्यांकन नहीं किया गया इसलिए अदालत ने निर्देश दिए कि छात्र विश्वविद्यालय को उत्तर पुस्तिका की एक टाइप की हुई प्रतिलिपि दे और उसका संबंधित परीक्षक से मूल्यांकन करवाया जाए बशर्ते कि वह संतुष्ट हो कि टाइपशुदा प्रति हस्तलिखित उत्तर पुस्तिका से बिल्कुल मेल खाती हो।