अति महत्त्वाकांक्षी मां, कड़क कोच
अमोल गुप्ते एक्टिंग में तो कई फिल्मों में ‘ओवर’ होते रहे हैं, ‘साइना’ में बतौर निर्देशक भी बार-बार ‘ओवर’ हुए हैं। घटनाओं को सहजता से पेश करने के बजाय उन्होंने इतना नाटकीय बना दिया कि फिल्म न दिल छू पाती है, न सलीके से मनोरंजन कर पाती है। हवा उड़ाई जा रही है कि यह फिल्म नई पीढ़ी को प्रेरणा देने के लिए बनाई गई है। नई पीढ़ी इससे कितनी प्रेरणा लेगी, यह तो बाद की बात है, माताओं को इस फिल्म से जरा भी प्रेरणा नहीं लेनी चाहिए। किसी मां की ऐसी भी क्या महत्त्वाकांक्षा कि अपनी नन्ही-सी बच्ची को हर मुकाबले में अव्वल देखना चाहे और रनर-अप रहने पर सबके सामने उसे चांटा जड़ दे। इस फिल्म में साइना के बचपन में उनकी मां इसी तरह पेश आती हैं। पिता भले बच्ची की भावनाओं को समझते हैं, लेकिन पत्नी की जिद के आगे दब्बू बने रहते हैं। बाद में कोच (मानव कौल) साइना की मां से भी चार कदम आगे दौड़ते नजर आते हैं। जनाब ‘जो झेल पाएगा, वहीं खेल पाएगा’ की मुनादी ऐसे करते हैं, गोया खिलाड़ी नहीं, किसी जंग के लिए लड़ाके तैयार कर रहे हों। खेल भावनाएं अगर वाकई इस कदर निर्मम हो गई हैं, तो यह खेलों के साथ-साथ समाज के लिए भी चिंता की बात है।
The Girl on the Train Movie Review: शुरू से आखिर तक हिचकोले खाती ट्रेन, चकरा गया ब्रेन
भावनाओं को कुचलकर बजती तालियां
दावा किया जा रहा है कि बायोपिक में ‘साइना’ का संघर्ष दिखाया गया है। कौन-सा संघर्ष? बायोपिक में तो उन्हें खाते-पीते घर की लड़की दिखाया गया है। मां उन्हें पराठे और मक्खन खिलाकर पाल रही है, ताकि वह बैडमिंटन में ऊंचा मुकाम हासिल कर सकें, जो वह खुद जिला स्तर की खिलाड़ी रहकर नहीं कर सकी। डॉक्टर पिता भी बैडमिंटन खिलाड़ी रह चुके हैं। कहीं न कहीं उनके मन में भी वही हसरत है, जो उनकी पत्नी की है। फिल्म में उनकी एक और बेटी दिखाई गई है। उस पर माता-पिता में से किसी का ध्यान नहीं है। शायद इसलिए कि वह बैडमिंटन नहीं खेलती। बेचारी या तो खाना पकाती रहती है या टीवी पर छोटी बहन का खेल देखकर तालियां बजाती रहती है। साइना मुकाबले जीतती है, तो मां-बाप भी देश की जनता के साथ तालियां बजाते हैं। मुकाबला हारने पर वह भी जनता की तरह बेटी के खेल पर अंगुलियां उठाने लगते हैं। लम्बी कशमकश के बाद बेटी फिर मुकाबला जीतती है, तो सब फिर तालियां बजाने लगते हैं। यह खेल नहीं, तमाशा है, जहां संवेदनाओं और भावनाओं को कुचलकर तालियां पीटी जाती हैं।
पुलेला गोपीचंद और पी.वी. सिंधु के प्रसंग गायब
अगर यह साइना नेहवाल की बायोपिक है, तो इसमें कोच पुलेला गोपीचंद और दूसरी बैडमिंटन स्टार पी.वी. सिंधु के उन प्रसंगों से परहेज क्यों किया गया, जिनके बारे में खेलों में दिलचस्पी रखने वाले तमाम लोग जानते हैं। अमोल गुप्ते सुरक्षित खेलना चाहते थे। ‘साइना’ में उन्होंने कोच का नाम बदलकर ‘राजन’ रख दिया है। बायोपिक में इस तरह की छूट लेना उसकी विश्वसनीयता को संदिग्ध बनाता है। जाने इस तरह के और कितने बनावटी प्रसंग फिल्म में डाले गए होंगे। पूरी फिल्म में अमोल गुप्ते घटनाओं को अति भावुक बनाकर दर्शकों को आंखें नम करने का सुख देने की कोशिश करते हैं। नाकाम कोशिश।
परिणीति ने चुकाए अक्षय से शर्त में हारे पैसे, दो हजार का नोट थमाते हुए लिखा…
काफी दम लगाया परिणीति चोपड़ा ने
साइना नेहवाल के किरदार में ढलने के लिए परिणीति चोपड़ा ने काफी दम लगाया है। कुछ जगह उनकी अदाकारी अच्छी है, लेकिन उनसे ज्यादा सहज अदाकारी बाल साइना बनी निशा कौर की है। कोच के किरदार में मानव कौल भी ठीक-ठाक हैं। बाकी किसी कलाकार ने ऐसा कोई तीर नहीं मारा है कि अलग से जिक्र किया जाए। फिल्म में कुछ गाने भी हैं। इनका होना न होना बराबर है। फोटोग्राफी कुछ हिस्सों में अच्छी है। कुछ जगह कैमरा भी पटकथा की तरह भ्रमित नजर आता है। अमोल गुप्ते पटकथा पर थोड़ी और मेहनत करते, तथ्य-सत्य पर कुछ और ध्यान देते, तो ‘साइना’ ठीक-ठाक बायोपिक हो सकती थी। फिलहाल इसके हुलिए पर साहिर का शेर याद आ रहा है- ‘ये जश्न ये हंगामे दिलचस्प खिलौने हैं/ कुछ लोगों की कोशिश है, कुछ लोग बहल जाएं।’