‘काल्पनिक’ और ‘सत्य’ एक साथ
‘मुम्बई सागा’ की शुरुआत में ‘इस फिल्म के सभी किरदार और घटनाएं काल्पनिक हैं’ की जानी-पहचानी पट्टी दिखाई जाती है। अगले ही पल दूसरी पट्टी आती है- ‘सत्य घटनाओं पर आधारित।’ यह माजरा समझ में नहीं आया। किसी फिल्म की घटनाएं एक साथ ‘काल्पनिक’ और ‘सत्य’ कैसे हो सकती हैं? शायद संजय गुप्ता फैसला दर्शकों पर छोडऩा चाहते थे। जिसकी जैसी भावना हो, वैसा समझ ले। फिल्म में हिंसा का आलम यह है कि पहले ही सीन में गैंगस्टर जॉन अब्राहम एक उद्योगपति (समीर सोनी) को गोलियों से भून देते हैं। यह उद्योगपति अपनी मिल बेचने की तैयारी में था। सियासत के भाऊ (महेश मांजरेकर) को फिक्र थी कि मिल बंद हो गई, तो उसके हजारों कामगारों के वोट उनके हाथ से फिसल जाएंगे। भाऊ के इशारे पर खून-खराबे का मोर्चा जॉन अब्राहम ने संभाल रखा है। एक दूसरे गैंगस्टर गायतोंडे (अमोल गुप्ते) से जॉन अब्राहम की पुरानी रंजिश चल रही है। पूरी फिल्म में अमोल गुप्ते आंखें निकाल-निकाल कर खलनायकी के तेवर दिखाने की कोशिश तो खूब करते हैं, बात नहीं बनती। वह ‘सिंघम रिटर्न्स’ वाले अपने किरदार की पैरोडी करते लगते हैं। रह-रहकर चलती गोलियों और किसी न किसी के ‘राम नाम सत्य’ के बीच दिवंगत उद्योगपति की पत्नी (अंजना सुखानी) पुलिस मुख्यालय में आकर ऐलान कर जाती है कि जो उसके पति के हत्यारे (जॉन अब्राहम) के सिर में गोली उतारेगा, 10 करोड़ का इनाम पाएगा। इंटरवल से ठीक पहले इनाम के दावेदार एनकाउंटर स्पेशलिस्ट (इमरान हाशमी) की एंट्री होती है। आगे ‘जब-जब जो-जो होना है/ तब-तब वो-वो होता है’ की तर्ज पर कहानी क्लाइमैक्स तक का सफर पूरा करती है।
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हर सीन में अगले सीन का अंदाजा
‘मुम्बई सागा’ में ऐसा कुछ भी नहीं है, जो इससे पहले किसी फिल्म में नहीं देखा गया हो। इस तरह की फिल्में पसंद करने वाले दर्शक भी इतने अभ्यस्त हो चुके हैं कि हर सीन में वे अगले सीन का अंदाजा लगा लेते हैं। कई बार एडवांस में तालियां भी बजा देते हैं। इंटरवल तक ‘मुम्बई सागा’ को ठीक-ठाक पटकथा का सहारा मिला। दूसरे भाग में पटकथा भी ढीली है और संजय गुप्ता की पकड़ उससे ज्यादा ढीली हो गई है। अपनी फिल्मों में पीली रोशनी वाले लम्बे-लम्बे सीन रखना उनकी पुरानी आदत है। ‘मुम्बई सागा’ भी कई हिस्सों में पीली होकर किसी मरीज की तरह थकी-थकी-सी लगती है।
भावनाओं पर जॉन का बस नहीं
मारधाड़ में जॉन अब्राहम माहिर हैं, लेकिन भावुक दृश्यों में जनाब उतने ही अनाड़ी लगते हैं। इस फिल्म में अपने छोटे भाई (प्रतीक बब्बर) को कहीं के लिए रवाना करने से पहले जब वह ‘मैं तेरे बिना कैसे रहूंगा’ बोलते हैं, तो यह छोटा-सा जुमला उनकी अदाकारी की हद बता देता है। काजल अग्रवाल को सिर्फ जॉन अब्राहम के आगे-पीछे घूमना था। उनके बदले कोई और हीरोइन होती, इतना काम वह भी कर लेती। सियासी दांव-पेच में माहिर भाऊ के किरदार में महेश मांजरेकर ठीक-ठाक हैं। इस तरह का किरदार वह इतनी फिल्मों में अदा कर चुके हैं कि उन्हें कंठस्थ हो चुका है। फिल्म में सुनील शेट्टी और गुलशन ग्रोवर भी बीच-बीच में हाजिरी देते रहते हैं।
कान के पर्दे हिलाता है बैकग्राउंड म्यूजिक
फिल्म की फोटोग्राफी अच्छी है। खासकर मुम्बई की सड़कों पर भागते वाहनों के सीन सलीके से फिल्माए गए हैं। बैकग्राउंड म्यूजिक के नाम पर कई हिस्सों में इतनी तीखा शोर-शराबा है कि कान के पर्दे हिलने लगते हैं। गाने सभी बेजान हैं। जब भी पर्दे पर कोई गाना आता है, लोग जरूरी काम निपटाने सिनेमाघर से बाहर चल देते हैं। यो यो हनी सिंह ने खामख्वाह पर्दे पर आकर ‘शोर मचेगा’ गाना पेश किया। बेवजह का शोर तो पूरी फिल्म में मचा हुआ है।