एक पुराने गाने में मुम्बई को ‘हादसों का शहर’ बताया गया था, जहां ‘रोज-रोज हर मोड़-मोड़ पर’ कोई न कोई हादसा होता है। ओटीटी प्लेटफॉर्म पर यह जो नई फिल्म ‘फुटफेरी’ ( Footfairy Movie ) आई है, इसमें भी शुरू-शुरू में एक गाना है- ‘कदम-कदम पे हादसे, खड़े हैं तेरे वास्ते।’ यह फिल्म अपने आप में किसी हादसे से कम नहीं है। आप इस उम्मीद में इसकी बोझिल घटनाएं झेलते रहते हैं कि शायद क्लाइमैक्स के बाद पता चलेगा कि सारा चक्कर क्या है। लेकिन क्लाइमैक्स के बाद सस्पेंस को पूरी तरह खोले बगैर यह आपको उलझन में छोड़कर खत्म हो जाती है। यह बात समझ से परे है कि ‘फुटफेरी’ किसके लिए और क्यों बनाई गई। फिल्म की कहानी मुम्बई में घूमती है। एक के बाद एक युवतियों की हत्याएं हो रही हैं। सनकी और सिरफिरा हत्यारा हर हत्या के बाद युवती के पैर काट ले जाता है। पुलिस के साथ आंखमिचौली खेलना उसका शगल है। काफी हाथ-पैर मारने के बाद भी वह पुलिस के हाथ नहीं लगता, तो फिल्म के हीरो गुलशन देवैया ( Gulshan Devaiah ) बतौर सीबीआई अफसर कहानी में दाखिल होते हैं। हत्यारा इनके साथ भी ‘तू डाल-डाल मैं पात-पात’ का खेल शुरू कर देता है। कहानी में रोमांटिक एंगल की गुंजाइश पैदा करने के लिए बच्चों की डॉक्टर सागरिका घाटगे ( Sagarika Ghatge ) सीबीआई अफसर के इर्द-गिर्द चक्कर काटने लगती हैं और ‘क्या हत्यारा मेरे पैर भी काट ले जाएगा?’ जैसे अटपटे सवाल से उनकी पेशानी के बल बढ़ाती रहती हैं। इससे कहीं ज्यादा बल दर्शकों की पेशानी पर पड़ते हैं, जब आखिर तक यह खुलासा नहीं होता कि हत्याएं कौन कर रहा था।
‘फुटफेरी’ निर्देशक कनिष्क वर्मा की पहली फिल्म है। इस साइकोलॉजिकल थ्रिलर में कोई नई बात पैदा करने के बजाय उन्होंने जोड़-जंतर ज्यादा किया है। यानी फिल्म में ऐसा कुछ नहीं है, जो आपने पहले किसी फिल्म में नहीं देखा हो। ‘एक विलेन’, ‘रमन राघव 2.0’, ‘रेड रोज’, ‘कौन?’, ‘मिसेज सीरियल किलर’ वगैरह में इस तरह की घटनाएं इतनी बार दोहराई जा चुकी हैं कि ये लोगों को दो के पहाड़े की तरह याद हो गई हैं। ‘फुटफेरी’ भी ‘जब-जब जो-जो होना है/ तब-तब वो-वो होता है’ के अंदाज में चलती है। यह न कहीं चौंकाती है और न इसमें वह चुस्ती-फुर्ती है कि देखने वाला आखिर तक बंधा रहे। फिल्म का अंत खीझ पैदा करने वाला है कि दो घंटे तक गोल-गोल घूमने के बाद भी कहानी किसी नतीजे पर नहीं पहुंची।
लगता है, कनिष्क वर्मा ( Kanishk Verma ) ने हॉलीवुड के फिल्मकार डेविड फिंशर (सेवेन, पेनिक रूम, द गर्ल विद द ड्रेगन टैटू) और कोरिया के बोंग जून-हो (बार्किंग डोग्स नेवर बाइट्स, मेमोरीज ऑफ मर्डर, पेरासाइट) की काफी फिल्में देख रखी हैं। ‘फुटफेरी’ के कुछ सीन में सस्पेंस फिल्मों के इन दोनों उस्तादों की शैली की नकल करने की कोशिश की गई है, लेकिन चूंकि अक्ल का ज्यादा इस्तेमाल नहीं किया गया, फिल्म का स्तर जरा भी नहीं उठ पाता। पटकथा इतनी ढीली है कि जब यह नहीं सूझा कि कहानी को कैसे समेटना है, निर्देशक ने अचानक फिल्म खत्म कर दी।
फिल्म के कुछ सीन अमरीकी सीरीज ‘द हंटिंग ऑफ ब्ली मेनर’ की नकल हैं। कहानी दो ट्रैक पर चलती है। पहला ट्रैक हत्यारे की खोज पर है, जबकि दूसरे ट्रैक में महानगर के आम जन-जीवन पर फोकस करने की कोशिश की गई है। दूसरे ट्रैक के विस्तार की अच्छी गुंजाइश थी। महानगरों में लोग इस कदर आत्मकेंद्रित हो गए हैं कि दूसरों के दुख-दर्द से उन्हें कोई लेना-देना नहीं होता। अफसोस की बात है कि ‘कातिल कौन’ के ड्रामे के चक्कर में यह ट्रैक भी ज्यादा नहीं उभर पाया।
पूरी फिल्म गुलशन देवैया के कंधों पर है। सुस्त कहानी को वे भी ज्यादा नहीं घसीट पाए। इससे पहले वे ‘शैतान’, ‘द गर्ल इन द बूट’, ‘हेट स्टोरी’ और ‘मर्द को दर्द नहीं होता’ में नजर आए थे। ‘फुटफेरी’ में उनकी एक्टिंग ठीक-ठाक है, लेकिन उनका किरदार पूरी तरह नहीं उभर पाता। पटकथा की तरह यह भी लेखन की कमजोरी है। ‘चक दे इंडिया’ से सुर्खियों में आईं सागरिका घाटगे को कुछ खास नहीं करना था। उन्होंने कोशिश भी नहीं की। पूरी फिल्म में एक्टिंग के बजाय वे मॉडलिंग करती लगती हैं। फिल्म में ‘क्राइम पेट्रोल’ के कुछ कलाकार भी नजर आए। ये न भी होते तो फिल्म के बिखरे हुए हुलिए पर कोई फर्क नहीं पड़ता।
० फिल्म : फुटफेरी
० अवधि : दो घंटे
० लेखन, निर्देशन : कनिष्क वर्मा
० फोटोग्राफी : प्रतीक देवड़ा
० कलाकार : गुलशन देवैया, सागरिका घाटगे, कुणाल रॉय कपूर, आशीष पथोड़े, पायल थापा, करण अरविंद बेंद्रे, योगेश सोमन आदि।