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Durgavati Movie Review: हॉरर के नाम पर वही घिसी-पिटी नौटंकी, फिर उड़ाई गईं तर्कों की धज्जियां

अरशद वारसी, माही गिल, जिशु सेनगुप्ता, करण कापडिया आदि को भी शायद फुसफुसी कहानी का पहले से इल्म था, इसलिए इन्होंने अदाकारी के नाम पर खानापूर्ति से ज्यादा कुछ करने की कोशिश नहीं की। करते भी तो फिल्म का नक्शा नहीं बदलता, जिसे निहायत ढीली पटकथा ने बुरी तरह बिगाड़ रखा है।

Dec 11, 2020 / 06:25 pm

पवन राणा

Durgavati Movie Review: हॉरर के नाम पर वही घिसी-पिटी नौटंकी, फिर उड़ाई गईं तर्कों की धज्जियां

Durgavati Movie Review: हॉरर के नाम पर वही घिसी-पिटी नौटंकी, फिर उड़ाई गईं तर्कों की धज्जियां

-दिनेश ठाकुर
कुछ फिल्मकारों में गोया होड़ चल रही है कि हॉरर के नाम पर कौन ज्यादा से ज्यादा हास्यास्पद नौटंकी पेश कर सकता है। नई कहानियों पर दिमाग कौन खर्च करे। दक्षिण की फिल्मों पर हाथ मारो और उनकी ऐसी ‘हिन्दी’ कर डालो कि हिन्दी भी पानी-पानी हो जाए। अक्षय कुमार की ‘लक्ष्मी’ में इसी तरह तमिल की ‘कंचना’ की हिन्दी की गई। यह कारनामा खुद ‘कंचना’ बनाने वाले राघव लॉरेंस ने किया था (किसी और को ‘हिन्दी’ करने का मौका क्यों दिया जाए)। उसी तरह की बचकाना और फूहड़ कोशिश जी. अशोक ने दो साल पहले आई अपनी तमिल-तेलुगु की ‘भागमती’ को अब हिन्दी में ‘दुर्गामती’ के नाम से बनाकर की है।

ओवर एक्टिंग की हद कर दी भूमि पेडनेकर ने
शुक्रवार को एक ओटीटी प्लेटफॉर्म पर आई ‘दुर्गामती’ को देखकर यह धारणा टूट गई कि भूमि पेडनेकर की अदाकारी कमजोर फिल्म में भी थोड़ी-बहुत राहत का सबब होती है। इस फिल्म में उन्होंने शुरू से आखिर तक इतना फेल-फक्कड़ किया है कि ओवर एक्टिंग करने वालों तक की आंखें खुली की खुली रह जाएं। वह आइएएस अफसर के किरदार में हैं, जो किसी सीन में नहीं लगतीं। पूरी फिल्म में वह इतना चीखती-चिल्लाती हैं और अजीब-अजीब शक्लें बनाती हैं कि सब्र का पैमाना टूटने लगता है। ‘दुर्गामती’ उनके कॅरियर का ऐसा हादसा है, जिसे वह खुद याद नहीं रखना चाहेंगी। तर्कों की धज्जियां उड़ाती यह फिल्म एक तरफ इक्कीसवीं सदी में तंत्र-मंत्र की वकालत करती है, तो दूसरी तरफ सियासत के भ्रष्टाचार को इतने बचकाना ढंग से बेनकाब करती है कि रील-दर-रील खुद इसकी कमजोरियों से नकाब उठता रहता है। दर्शकों के लिए यह ढाई घंटे की सजा से कम नहीं है।

..तो ‘रूह’ सुलझाएगी मामले
हॉरर के नाम पर ‘दुर्गामती’ में वही आबादी से दूर एक हवेली है, जहां एक रूह डोलती रहती है। ऐसे टोटके इतनी फिल्मों में दोहराए जा चुके हैं कि अब इनमें जरा भी दिलचस्पी पैदा नहीं होती। किस्सा इतना-सा है कि आइएएस अफसर (भूमि पेडनेकर) को एक मामले में फंसाकर जेल में डाल दिया जाता है। सीबीआइ उसे पूछताछ के लिए जेल से निकालकर हवेली में क्यों ले जाती है, कोई नहीं जानता। इस महिला अफसर को दौरे पडऩे लगते हैं और एक नेता (अरशद वारसी) शक के दायरे में आ जाता है। जाहिर है, दौरे का सबब वही है, जो ‘लक्ष्मी’ में था। वहां अक्षय कुमार में एक किन्नर की रूह प्रवेश कर जाती है। यहां भूमि के साथ वही सब होता है। शुरुआती दो-चार रील के बाद ही पता चल जाता है कि ‘दुर्गामती’ बनाने वालों के पास दिखाने के लिए नया कुछ नहीं है। जो कुछ है, वह इतना रसहीन, बेतुका और बिखरा हुआ है कि बेजान घटनाएं हिचकोले खाती हुईं जैसे-तैसे क्लाइमैक्स तक पहुंचती हैं।

फुसफुसी कहानी, ढीली पटकथा
अरशद वारसी, माही गिल, जिशु सेनगुप्ता, करण कापडिया आदि को भी शायद फुसफुसी कहानी का पहले से इल्म था, इसलिए इन्होंने अदाकारी के नाम पर खानापूर्ति से ज्यादा कुछ करने की कोशिश नहीं की। करते भी तो फिल्म का नक्शा नहीं बदलता, जिसे निहायत ढीली पटकथा ने बुरी तरह बिगाड़ रखा है।

‘भागमती’ ही डब कर देते हिन्दी में
बेहतर होता, ‘दुर्गामती’ बनाकर ‘भागमती’ की हिन्दी करने के बजाय जी. अशोक मूल फिल्म को ही हिन्दी में डब कर देते। गले नहीं उतरने वाली घटनाओं की उस फिल्म में भी भरमार है, लेकिन वहां ठीक-ठाक पटकथा थोड़ी-बहुत लाज रख लेती है। ‘भागमती’ की कमजोरियों पर अनुष्का शेट्टी की अदाकारी ने भी पर्दा डाला था। उनके मुकाबले भूमि पेडनेकर ‘दुर्गामती’ की सबसे कमजोर कडिय़ों में से एक हैं। हैरानी होती है कि ‘सांड की आंख’, ‘शुभ मंगल सावधान’, ‘टॉयलेट- एक प्रेमकथा’ और ‘दम लगाके हइशा’ के लिए पहचानी जाने वाली भूमि ने यहां अदाकारी का कोई दम नहीं दिखाया।

० फिल्म – दुर्गामती
० रेटिंग – 1/5
० अवधि – 2.35 घंटे
० निर्देशक – जी. अशोक
० लेखन- जी. अशोक, रवींद्र रंधावा
० फोटोग्राफी – कुलदीप ममानिया
० संगीत – जैक्स बिजॉय
० कलाकार – भूमि पेडनेकर, अरशद वारसी, माही गिल, जशु सेनगुप्ता, करण कपाडिया आदि।

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