फेल-फक्कड़ वाली फिल्म का लचर रीमेक
दक्षिण की फिल्में जरूरत से ज्यादा लाउड होती हैं, क्योंकि वहां मसाला फिल्मों के ज्यादातर फिल्मकारों को लगता है कि अगर लाउडनेस नहीं होगी, तो दर्शकों को नींद आ सकती है। नौ साल पहले आई निर्देशक राघव लॉरेंस ( Raghava Lawrence ) की तमिल फिल्म ‘कंचना’ भी बेहद लाउड थी। उसमें हर किरदार जोर-जोर से बोलकर एक्टिंग का जाने कौन-सा रूप पेश करना चाहता था। खुद राघव लॉरेंस उसके हीरो थे, जिन्होंने जॉनी लीवर की मिमिक्री-सी की थी। ‘लक्ष्मी’ इसी ‘कंचना’ का रीमेक है। यहां हीरो अक्षय कुमार हैं। उन्होंने एक्टिंग के बजाय अपनी सारी ऊर्जा फेल-फक्कड़ दिखाने में खर्च कर दी। तुर्रा यह कि इस फिल्म के जरिए किन्नरों के सम्मान और हक के लिए आवाज उठाने के दावे किए जा रहे हैं, जबकि एक भी प्रसंग ऐसा नहीं है, जो इस दावे के पक्ष में जाता हो।
गले नहीं उतरती घटनाएं
‘लक्ष्मी’ की शुरुआत में अक्षय कुमार भूत उतारने का दावा करने वाले एक ढोंगी बाबा की पोल खोलकर जब उसे झाड़ते हैं- ‘दोबारा किसी को लूटने की कोशिश की, तो ये वीडियो यूट्यूब पर अपलोड कर दूंगा और तू जेल में डाउनलोड हो जाएगा’, तो लगा था कि आगे ऐसे ढोंगियों की खबर ली जाएगी। लेकिन फिल्म खुद अंधविश्वासों के चक्कर काटने लगती है और ढोंग पर ढोंग परोसती रहती है। किस्सा इतना-सा है कि जमीन के लिए कुछ बदमाश एक किन्नर की हत्या कर देते हैं। किन्नर की रूह अक्षय कुमार के शरीर में प्रवेश कर जाती है और एक के बाद एक बदमाशों का बैंड बजाने लगती है। किस्सा जितना हास्यास्पद है, उसे उतने ही फूहड़ तरीके से पर्दे पर उतारा गया है। घटनाओं का सिलसिला बिखरा हुआ है। जिस दर्शक वर्ग को ध्यान में रखकर यह फिल्म बनाई गई है, उसके लिए भी इसे झेलना भारी पड़ेगा।
इसे तो कॉमेडी नहीं कहते
कहानी हरियाणा में शुरू होकर गुजरात पहुंच जाती है, जहां हीरो (अक्षय कुमार) का ससुराल है। अजीब ससुराल है। अजीब तो यह भी है कि हीरो 53 साल का है और उसकी शादी 28 साल की हीरोइन कियारा आडवाणी ( Kiara Advani ) से हुई है। हीरो की सास शराब पीती रहती है और बहू जब चाहे उसे थप्पड़ मार देती है। हीरो भी जोश में ससुर पर हाथ चला देता है। राघव लॉरेंस अगर इन बचकाना हरकतों को कॉमेडी मानते हैं, तो अगली फिल्म बनाने से पहले उन्हें कुछ सलीकेदार कॉमेडी फिल्में देख लेनी चाहिए। दर्शकों का बड़ा भला होगा।
निराश किया अक्षय ने
अक्षय कुमार बुरी तरह निराश करते हैं। सिर्फ साड़ी पहनकर और बिंदी लगाकर किन्नर के किरदार का हक अदा नहीं हो जाता। ऐसे किरदार परेश रावल (तमन्ना) और सदाशिव अमरापुरकर (सड़क) कहीं बेहतर ढंग से अदा कर चुके हैं। कियारा आडवाणी को कुछ खास नहीं करना था। उन्होंने कोशिश भी नहीं की। यही हाल बाकी कलाकारों का है। जब कहानी ही फुसफुसी हो, तो किसी के लिए कुछ कर दिखाने की गुंजाइश भी कहां रहती है।
अलग से चिपकाए गए गाने
फिल्म में तीन गाने हैं, जिनका कहानी से कोई लेना-देना नहीं है। साफ लगता है कि इन्हें अलग से चिपकाया गया है। एक गाने के लिए हीरो-हीरोइन सपनों में गुजरात से सीधे दुबई पहुंच जाते हैं और बुर्ज खलीफा को पानी-पानी कर आते हैं। ‘बम भोले’ का फिल्मांकन ‘करण अर्जुन’ के ‘जय मां काली’ की याद दिलाता है। इस गाने तक आते-आते फिल्म इतनी उबाऊ हो जाती है कि रिमोट का ‘स्विच ऑफ’ दबाना पड़ता है। वैसे बीच-बीच में फॉरवर्ड करने के लिए भी रिमोट का सहारा लिया जा सकता है।
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