भारतीय अर्थव्यवस्था की यह एक ऐसी हकीकत है जिसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। विकसित देशों के मुकाबले यहां की औरतों को आगे बढ़ने और देश की अर्थव्यवस्था में अपना योगदान देने के कम मौके मिलते हैं। खासतौर पर घर का काम करने वाली महिलाओं को लिए तो ऐसे अवसर नगण्य ही हैं। वे घर में रहकर चाहे कोई छोटा-मोटा काम ही करें, उस काम की भी गणना उत्पादक कार्यों या कमाई वाले कामों में नहीं की जाती है। आज भी देश में लाखों परिवार ऐसे हैं जो घर में ही छोटे-मोटे धंधे (लाख की चूड़ी बनाना, कपड़े रंगना, प्रेस करना, सब्जी बेचना आदि) करके अपनी रोजी-रोटी चला रहे हैं। उन घरों में महिलाएं भी परिवार के अन्य सदस्यों के साथ अपना यथासंभव योगदान देती हैं परन्तु वहां पर या तो उन्हें वर्कर ही नहीं माना जाता या फिर उन्हें उनकी मेहनत का मुआवजा नहीं मिलता।
अशोक यूनिवर्सिटी में इकोनॉमिक्स के प्रोफेसर अश्विनी देशपांडे ने अपने एक रिसर्च पेपर Paid work, unpaid work and domestic chores: Why are so many Indian women out of the labour force? में महिला रोजगार तथा अर्थव्यवस्था में महिलाओं की भूमिका को रेखांकित करते हुए कई जरूरी बिंदुओं की ओर ध्यान आकर्षित किया है।
वह कहती है, ग्रामीण तथा शहरी क्षेत्रों में महिलाओं की भूमिका अलग-अलग है। दोनों ही जगहों पर अलग-अलग जरूरतों और स्थानीय सामाजिक मान्यताओं का महिलाओं के काम करने तथा उनके महत्व पर असर पड़ता है। इस असर को हम अनदेखा नहीं कर सकते।