कोरोना संक्रमण से यह वैक्सीन कब तक सुरक्षित रख सकेगी, इसको लेकर विशेषज्ञ अभी किसी तरह का दावा करने की स्थिति में नहीं हैं। विशेषज्ञ अब भी उन लोगों पर अध्ययन कर रहे हैं, जिन्होंने वैक्सीन लगवा ली है। अपने अध्ययन में विशेषज्ञ यह समझने की कोशिश में जुटे हैं कि वैक्सीन की सुरक्षा कितनी कारगर है। इसके अलावा वे इस बात की पड़ताल भी कर रहे हैं कि नए प्रारूप यानी कोरोना के नए वैरिएंट के खिलाफ मौजूदा वैक्सीन कितनी कारगर है और क्या इसके लिए पुराने वैरिएंट के हिसाब से डोज दिए जाने चाहिए या नए वैरिएंट्स के लिए अतिरिक्त डोज दिए जाने की भी जरूरत है।
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कई वैक्सीन छह महीने तक कारगरभारत में मौजूद दोनों वैरिएंट पर भारत के अलावा कई और देशों वैज्ञानिक भी शोध कर रहे हैं। इनमें से एक वाशिंगटन यूनिवर्सिटी में वैक्सीन रिसर्च टीम में शामिल डेबोरा फुलर के मुताबिक, उनके पास तभी जानकारी होती है, जब वैक्सीन पर स्टडी होती है। फुलर ने कहा, हमें वैक्सीन लगाए जा चुके लोगों का अध्ययन करना होता है। उसके साथ यह देखना होता है कि किस बिंदु पर लोग वायरस के प्रति फिर से कमजोर हो जाते हैं। बता दें कि अभी तक फाइजर के चल रहे ट्रायल के अनुसार कंपनी के दो डोज वाली वैक्सीन कम से कम छह महीने के लिए बहुत कारगर रहती है। यही नहीं विशेषज्ञों का मानना है कि छह इसके डोज छह महीने के बाद भी लंबे समय तक कारगर रह सकते हैं। वहीं, मॉडर्ना कंपनी की वैक्सीन लगवाने वाले लोगों को में भी दूसरे डोज के बाद वायरस से लडऩे के एंटीबॉडी के लेवल पर छह महीने तक कारगर रहते हैं।
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एंटीबॉडी का रोल क्याहालांकि, एंटीबॉडी से सारी बात पता नहीं लग पाती। बाहरी वायरस से लडऩे के लिए प्रतिरोधक तंत्र के पास कितनी सुरक्षा की दूसरी दीवार भी होती है, जिसे बीआरटी कोशिकाएं कहते हैं। इनमें से कुछ कोशिकाएं तब भी रहती हैं, जब एंटीबॉडी का स्तर कम होता है। यदि भविष्य में वही वायरस फिर से आता है, तो ये कोशिकाएं फिर से और तेजी से सक्रिय होती हैं। बहरहाल, यदि टी या बी कोशिकाएं बीमारी को नहीं रोक पाती हैं, तो वे उसकी गंभीरता को कम कर देती हैं, मगर ये कोशिकाएं कोरोना वायरस के मामले में ऐसी भूमिका कब तक और कैसे निभाती हैं, यह अभी तक स्पष्ट नहीं है।