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30 सितंबर 2010 को ही इलाहाबाद हाईकोर्ट ने विवादित जमीन पर सुनाया था बड़ा फैसला

बाबरी मस्जिद विध्वंस मामले ( babari Masjid Case ) में विशेष सीबीआई अदालत बुधवार को सुनाएगी फैसला।
10 साल पहले इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ पीठ ने सुनाया था बड़ा फैसला।
अदालत ने दिया था रामलला, निर्मोही अखाड़े और वक्फ बोर्ड को बराबर देने का आदेश।

30 September 2010: Allahabad HC decision to divide the disputed land into 3 parts

नई दिल्ली। बाबरी मस्जिद विध्वंस मामले को लेकर सीबीआई की विशेष अदालत बुधवार यानी 30 सितंबर को फैसला सुनाएगी। पूर्व उपप्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी, भाजपा के वरिष्ठ नेता मुरली मनोहर जोशी, कल्याण सिंह और उमा भारती समेत 32 अभियुक्तों वाले इस मामले के फैसले को आने में दशकों लग चुके हैं। हालांकि इसके साथ ही यह भी जानने वाली बात है कि ठीक 10 साल पहले इलाहाबाद हाईकोर्ट ने विवादित जमीन ( babari Masjid Case ) को लेकर बड़ा फैसला सुनाया था।
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आपको बता दें कि वर्ष 1885 में महंत रघुबर दास ने अयोध्या स्थित राम चबूतरा क्षेत्र में मंदिर निर्माण के लिए मुकदमा किया था, लेकिन बाबरी मस्जिद के कथित मुतावली मोहम्मद अशगर ने इसका विरोध किया। उन्होंने जमीन के सीमांकन में कुछ इंच तक आपत्ति दर्ज की, लेकिन पर्याप्त आपत्तियां नहीं पेश कीं, जिसके बाद यह केस खारिज हो गया। अदालत ने माना था कि मंदिर निर्माण की इजाजत देना सांप्रदायिक दंगे भड़काने वाला कदम हो सकता था।
इसके सवा सौ साल बाद वर्ष 2010 में इलाहाबाद हाईकोर्ट में इस मामले की सुनवाई में 30 सितंबर को बड़ा आदेश सुनाया गया। 30 सितंबर 2010 को विवादित जमीन के संबंध में फैसला सुनाने वाली इलाहाबाद उच्च न्यायालय की पीठ में न्यायमूर्ति सिबघाट उल्लाह खान, न्यायमूर्ति सुधीर अग्रवाल और न्यायमूर्ति धरम वीर शर्मा शामिल थे।
पीठ ने फैसला सुनाया कि अयोध्या में 2.77 एकड़ की विवादित भूमि पर भगवान रामलला विराजमान, निर्मोही अखाड़ा और उत्तर प्रदेश सुन्नी वक्फ बोर्ड के पास बिना किसी उचित शीर्षक के संयुक्त रूप से कब्जा था। इसलिए इस विवादित भूमि के तीन हिस्से कर दिए जाएं और इन्हें तीनों पक्षों यानी भगवान रामलला विराजमान वाला हिस्सा हिंदू महासभा को, निर्मोही अखाड़ा और उत्तर प्रदेश सुन्नी वक्फ बोर्ड को बराबर-बराबर बांट दिया जाए।
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अदालत ने इस फैसले का आधार पुरातत्व विभाग की रिपोर्ट को माना था। इस रिपोर्ट में कहा गया था कि विवादित भूमि की खुदाई के दौरान वहां मंदिर होने के प्रमाण हासिल हुए थे। इतना ही नहीं इसमें भगवान राम के जन्म की मान्यता को भी स्थान दिया गया था। अदालत ने यह भी टिप्पणी की थी कि सदियों पुरानी एक इमारत के ऐतिहासिक तथ्यों को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।
इस आदेश को लेकर न्यायमूर्ति खान ने कहा कि 1885 का तत्कालीन आदेश अनिवार्य रूप से यथास्थिति आदेश था। इसमें किसी भी कानूनी मुद्दे पर फैसला नहीं लिया गया था और नतीजतन यह मुस्लिम पक्ष को बाध्य नहीं कर सकता। वहीं, जस्टिस शर्मा का कहना था कि उस मामले में महंत और मुतावली को विवाद में रुचि रखने वाले सभी पक्षों की ओर से मुकदमा लड़ने वाला नहीं बताया जा सकता है। ऐसे में यह आदेश पक्षों के लिए बाध्यकारी नहीं हो सकता है।

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