मेरठ। मेरठ का गांव गेसूपुर और हस्तिनापुर खादर क्षेत्र के कई गांव में सपेरों की बस्तियां हैं। सपेरों की इस बस्ती को पूरे साल नागपंचमी का इंतजार रहता था। नागपंचमी से पहले सांप खरीदने वालों की इस बस्ती में भीड़ बढ़ जाती थी। कारण था नागपंचमी पर अपने ग्रहदोष शांत कराने के लिए सांपों के माध्यम से पूजा—पाठ कर उपाय कराना। लोगों को पंडित जिस प्रकार का कालसर्प दोष बताते थे उसी प्रजाति का सांप भी पूजा—पाठ के लिए चाहिए होता था। सो दिल्ली और एनसीआर के लोग तक अपने पंडित के साथ आते थे और सांप खरीदकर यहीं पर अनुष्ठान और पूजा—पाठ करवा दिया करते थे। लेकिन जबसे सांपों को रखने पर प्रतिबंध लगा इन गांवों के सपेरे अब बेरोजगार हो गए हैं।
यह भी पढ़ें
IPL के ऐलान के बाद विपक्षी गेंदबाजों की बखिया उधेड़ने के लिए बल्ले खरीदने निकले सुरेश रैना और ऋषभ पंत
सांपों की मुंहमांगी कीमत मिलती थी गेसूपुर के सपेरा बस्ती के परम नाथ बताते हैं कि सपेरों और सांपो का साथ तो सदियों से है और यही उनकी रोजी रोटी का साधन था। उनका कहना है कि वे शादियों में बीन बजाते हैं पर वो काम भी साल में दो-चार दिन ही मिलता है। जिसमें परिवार पालना मुश्किल हो गया है। जब से वाइल्ड लाइफ प्रिवेंशन एक्ट (1972) के तहत सांपों को पालना अपराध घोषित हुआ है। इस नियम को सपेरों के ऊपर 2011 से सख्ती से लागू किया गया है। कल्पनाथ का कहना है कि साहब पहले तीज त्योहारों पर या फिर किसी धार्मिक अनुष्ठान में सांपों की जरूरत होती थी तो मुंहमांगी कीमत मिल जाती थी। लेकिन अब तो कोई डर की वजह से भी नहीं आता है। यह भी पढ़ें
होटल में पुलिस की छापेमारी, आपत्तिजनक हालत में मिले दर्जनभर से अधिक लड़के-लड़कियां
नागपंचमी के समय वन विभाग की रहती है सपेरों की बस्ती पर नजर सावन के पूरे महीने सपेरों की बस्ती पर वन विभाग की नजर रहती हैं। वन विभाग के लोग दिन में एक—दो बार चक्कर मार ही देते हैं। नजर रखने का कारण कि कहीं सपेरे सांपों को तो जंगल से पकड़कर नहीं ला रहे। इसके लिए वन विभाग वाले आसपास के गांवों में भी अपने मुखबिर छोड़ते हैं। जो यह पता लगाते हैं कि सपेरे जंगल से सांप तो नहीं पकड़ रहे। पिता से सांप पकड़ने की सीखी कला मित्सुनाथ ने अपने पिता से ही सांप को पकड़ने की कला सीखी थी। वो भी ये काम करते थे पर अब कहीं आस-पास सांप निकलने पर वे उनको पकड़ने चले जाते हैं। उनकी पत्नी रमावती देवी बताती है कि घर चलाने के लिए अब पैसे कम पड़ते हैं पहले की कमाई ज़्यादा हुआ करती थी। ज्यादातर गाँव के बुज़ुर्ग़ अब घर पर ही रहते हैं। वे कहते हैं कि अब तो नागपंचमी को भी सांपों की पूजा करना मुश्किल हो गया है। सरकार ने सपेरों के पुनर्वास के लिए कोई काम नहीं किया। उनके हालात अब दिनों दिन ख़राब होते जा रहे हैं।बच्चों के लिए बीन अब सिर्फ खेलने का साधन है और नई पीढ़ी में इसे बजाने का कोई रुझान नहीं है।