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डा0 संजीव शर्मा कहते हैं कि दलों को अब समझ आ चुका है कि 2019 ही नहीं, उससे पहले के विधानसभा चुनावों में भी दलित-मुस्लिम फैक्टर बहुत बड़ी चुनौती होगी। उन्होंने बताया कि आने वाले विधानसभा चुनाव सभी दलों के लिए 2019 के आम चुनाव का सेमीफाइनल होंगे। राजस्थान हो या फिर मप्र दोनों ही राज्यों में दलित मतदाताओं की संख्या को नकारा नहीं जा सकता। अब तो दल भी डरे हुए हैं और स्वीकार करने लगे हैं कि बिना दलित और मुस्लिम के कुछ नहीं है।
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बात कैराना उपचुनाव की करें तो यह 2019 का चुनावी मॉडल बनकर उभरा है। इस उपचुनाव ने जहां पूर्व मुख्यमंत्री मायावती की खोई हुई राजनीतिक ताकत को संजीवनी देकर फिर से खड़ा कर दिया। वहीं रालोद भी इस उपचुनाव में पूरी तरह से राजनीतिक पिच पर फॉर्म में आ गई। कैराना उपचुनाव सिर्फ बीजेपी और एकजुट विपक्ष के बीच हार जीत का नमूना भर नहीं रहा। दरअसल, कैराना उपचुनाव उप्र के भविष्य की राजनीति की असली तस्वीर पेश कर गया। यहां तक कि दलित और मुस्लिम वोटर के रुझान के हिसाब से भी देखें तो भी।
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दलित चिंतक डा0 सतीश शर्मा जो मेरठ कालेज में प्रोफेसर हैं उनका मानना है कि भाजपा सरकार में दलितों पर अत्याचार की घटनाएं बढ़ी हैं। भाजपा सरकार में दलित अधिकारियों को दरकिनार कर दिया गया। उन्होंने कहा कि सरकार की जो भी योजनाएं होती है वे किसी न किसी रूप में सीधी दलितों से जुड़ी होती है। भाजपा सरकार ने इन सभी योजनाओं का आते ही बंद कर दिया। जिस दलित ने 2017 के विधानसभा चुनाव में भाजपा पर भरोसा कर ईवीएम पर कमल खिलाया था वहीं दलित सरकार के पहले ही कदम से उससे पीछे हट गया। दलितों को लगने लगा कि भाजपा से अच्छी तो पिछली सरकारें थी जो दलितों का ध्यान रख रही थी।
दलित चिंतक डा0 सतीश शर्मा जो मेरठ कालेज में प्रोफेसर हैं उनका मानना है कि भाजपा सरकार में दलितों पर अत्याचार की घटनाएं बढ़ी हैं। भाजपा सरकार में दलित अधिकारियों को दरकिनार कर दिया गया। उन्होंने कहा कि सरकार की जो भी योजनाएं होती है वे किसी न किसी रूप में सीधी दलितों से जुड़ी होती है। भाजपा सरकार ने इन सभी योजनाओं का आते ही बंद कर दिया। जिस दलित ने 2017 के विधानसभा चुनाव में भाजपा पर भरोसा कर ईवीएम पर कमल खिलाया था वहीं दलित सरकार के पहले ही कदम से उससे पीछे हट गया। दलितों को लगने लगा कि भाजपा से अच्छी तो पिछली सरकारें थी जो दलितों का ध्यान रख रही थी।