भगवान श्री कृष्ण ने जेल में पैदा होते ही अपनी लीलायें दिखाना शुरू कर दिया था। भगवान श्री कृष्ण ने कृष्ण पक्ष की अष्टमी को मध्य रात्रि को जेल में जन्म लिया। जेल में मामा कंस का कड़ा पहरा होने के बावजूद कृष्ण पक्ष की अष्टमी में अर्ध रात्रि को जन्म लेने के बाद काली अंधेरी रात को जेल के पहरेदारों के सो जाने के बाद वासुदेव भगवान श्री कृष्ण को सूप में रखकर यमुना जी के रास्ते गोकुल ले गये। भगवान श्रीकृष्ण ने जहां जन्म लिया, उसे ही जन्मभूमि कहा जाता है। वर्तमान समय में यहां पर जन्माष्टमी को भगवान श्री कृष्ण का जन्मोत्सव धूमधाम से मनाया जाता है।
काली अंधेरी रात औऱ घनघोर वर्षा के बीच धीरे धीरे यमुना अपने उफान पर आने लगी और वासुदेव अपने सर पर सूप में नन्हे से बालक भगवान श्री कृष्ण को लेकर आगे बढ़ रहे थे, तभी यमुना जी का पानी बढ़ते बढ़ते वासुदेव की ठोड़ी को छूने लगा। यमुना के पानी के बढ़ते स्तर को देख वासुदेव को लगा कि अब वह डूबने वाले हैं और उनके साथ वो नन्हा बालक भी डूब जाएगा और तभी वासुदेव ने चिल्लाना शुरू कर दिया कि इस नन्हे से बालक को “कोइले कोइले”। वासुदेव की ऐसी पुकार सुनने के बाद भगवान श्री कृष्ण ने सूप से अपने पैर बाहर निकाल दिए और यमुना जी भगवान श्री कृष्ण के पैरों को छूने के बाद शांत हो गयी और यमुना जी का जल स्तर धीरे धीरे घटने लगा। कालिंदी यानि यमुना जी भगवान की चौथी पटरानी थीं, इसलिए यमुना जी भगवान के पैर छूने के बाद शांत हो गयीं।
जहां यमुना जीे भगवान श्री कृष्ण के पैरों को छूने के बाद शांत हुईं, उस घाट को कोइले घाट के नाम से जाना जाता है।
वासुदेव जी यमुना के रास्ते नन्हे बालक को लेकर गोकुल स्थित नंदबाबा के यहां पहुंचे। नंदभवन पंहुच कर नंदबाबा और यशोदा की पुत्री योग माया को लेकर वापस कंस की जेल आ गए। गोकुल में पंहुचने के बाद भगवान श्री कृष्ण ने अपनी बाल्य अवस्था से ही लीलायें दिखाना आरम्भ कर दिया। यहां नंद भवन मंदिर पूरा पत्थरों से बना है, लेकिन यहां मंदिर में एक हिस्सा कच्चा छोड़ दिया है, इसके पीछे मान्यता है की मंदिर में जो मिट्टी है, इसी मिट्टी पर कान्हा घुटने चले थे और इसी स्थान पर कृष्ण के सबसे पहले चरण पड़े। इसी कारण जो भक्त नन्द भवन में दर्शन करने आते हैं, वे नीचे बैठकर दर्शन करते हैं और घोंटू पर चल कर आगे बढ़ते हैं। माना जाता है की भगवान कृष्ण यहां घुटअन चले थे, यहां दर्शन करने वाले भक्त नन्द भवन जाकर जय कारे लगाते हैं और यह बोलते हुए आगे बढ़ते हैं ” पा पा पैया चले कृष्ण कन्हैया “।
गोकुल में कृष्ण ने महज 6 दिन की अस्वस्था में ही पूतना का वध कर बृज को राक्षसों से आज़ादी की शुरुआत कर दी और ब्रजवासियों को दिखा दिया कि वे कोई साधारण बालक नहीं हैं। कहा जाता है कि कंस के अपनी सबसे बलशाली राक्षसी पूतना को भगवान श्री कृष्ण के वध के लिए भेजा। 6 दिन के नन्हे बालक का वध करने के लिए पूतना सुंदर नारी का भेष रख और अपने स्तनों पर जहर लगा कर कान्हा को दूध पिलाने आयी, लेकिन 6 दिन की उम्र में ही पूतना जैसी राक्षसी का वध कर उन्होंने यह संदेश दे दिया की जल्दी ही मथुरा और ब्रज धाम कंस के अत्याचारों से आज़ाद होने वाला है। फिर धीरे धीरे कंस द्वारा भेजे गए अनेकों राक्षसों जैसे अकासुर, वकासुर का वध कर उनको आज़ाद कर मोक्ष दिया।
भगवान कृष्ण की लीलाओं के ब्रज में अनेकानेक प्रमाण मिलते हैं, उन्हीं में से एक वृक्ष भी है। ऐसा माना जाता है कि गोकुल में इस वृक्ष के नीचे ही कृष्ण का लाल छेदन हुआ था और इसी पेड़ पर मां यशोदा ने कृष्ण को पहली बार झूला झुलाया था और यहीं से नंद उत्सव की शुरुआत हुई थी।
गोकुल भगवान श्री कृष्ण की ऊखल लीला तो याद होगी, जिसमें भगवान श्री कृष्ण नंद भवन के आंगन में लगे दो शापित राक्षस रूपी पेड़ों को गिराकर उनको शाप से आज़ाद कराते हैं। इस लीला में माता यशोदा कान्हा को ऊखल से बांध देती हैं, जिससे नन्हा बालक शोर न करे और एक जगह बैठा रहे, लेकिन भगवान श्री कृष्ण अपने बजन से कई गुना भारी ऊखल को आंगन में खींचते हैं और ऊखल उन दो शापित पेड़ों के बीच फंस जाता हैं और भगवान श्री कृष्ण द्वारा जोर से ऊखल खींचने पर दोनों पेड़ गिर जाते हैं और उनको आज़ादी मिल जाती है।
भगवान श्री कृष्ण ने बाल्यकाल में ही यशोदा मैया को अपने मुंह में पूरे ब्रह्माण्ड के दर्शन करा और अपना विराट रूप दिखा यशोदा मैया को हैरत में डाल दिया था। मथुरा स्थित ब्रह्मांड घाट पर इस लीला का बहुत अच्छे से वर्णन है कि कान्हा अपने बाल्यकाल में और बच्चों की तरह मिट्टी खाते थे और जब मैया यशोदा ने कान्हा को मिट्टी खाते देखा तो कान्हा से पूछा कि लाला तुमने मिट्टी खाई है अपना मुंह दिखाओ और जैसे ही कान्हा ने अपना मुंह खोल कर यशोदा मैया को दिखाया और मैया यशोदा उस नन्हे से बालक के मुंह मे पूरे ब्रह्माण्ड के दर्शन कर अपनी सुधवुध खो बैठीं। मैया यशोदा ने घबराकर शिवजी की पूजा की। आज भी गोकुल में स्थित ब्रह्मांड घाट पर मिट्टी का प्रसाद लगता है और यहां प्रसाद के रूप में मिट्टी के पेड़े मिलते हैं। इन मिट्टी के पेड़ों को खाकर भक्त अलग ही आनंद की अनुभूति करते हैं।
गोकुल में लगातार कंस द्वारा भेजे गए राक्षसों के अत्याचार से परेशान हो कर और अपने कान्हा की रक्षा इन राक्षसों से करने के लिए नंदबाबा गोकुल से करीब 70 किमी दूर स्थित नंदेश्वर पर्वत पर चले गए। ऐसा कहा जाता है नंदेश्वर पर्वत को वरदान था कि अगर इस पर्वत पर कोई राक्षस आता है तो वो राक्षस पत्थर का हो जाएगा। और ऐसा ही हुआ जब कंस को मालूम पड़ा कि नंदबाबा नंदेश्वर पर्वत स्थित नंदगांव में बस गए हैं, तो कंस ने अपने दो राक्षस हाऊ बिलाऊ भेजे। जैसे ही ये दो राक्षस नंदगांव पहुंचे दोनों राक्षस पत्थर के हो गए, जिनके निशान आज भी यहां मौजूद हैं।
वृन्दावन के कण-कण में कृष्ण विद्यमान हैं यहां हर ओर बस कृष्ण का ही नाम और उनकी लीलाओं के प्रमाण दिखाई देते हैं। वृन्दावन में कृष्ण ने अपनी ज्यादातर लीलायें पतित पावनी यमुना के किनारे ही की हैं। यहां यमुना के एक घाट पर ही कृष्ण ने गोपियों संग चीर हरण लीला की थीं। कृष्ण ने यमुना में स्नान कर गोपियों के वस्त्र चुरा कर घाट पर ही स्थित कदम्ब के वृक्ष की शाखाओं पर बांध दिये थे, तब गोपियों की प्रार्थना पर कृष्ण ने उन्हें यमुना में स्नान करने की मर्यादा का ज्ञान देते हुए वस्त्रदान किये थे, तब से ही घाट का नाम चीर-हरण घाट है और वर्तमान में इसे चीर घाट के नाम से जाना जाता है। कृष्ण की परंपरा का अनुसरण करते हुए आज यहां वस्त्रदान की परंपरा है। माना जाता है कि वृक्ष की शाख पर बैठे हुए कृष्ण के दर्शन कर शाखा पर चीर बांधने से घर में कभी भी वस्त्र और अन्न की कमी नहीं होती है।
भगवान कृष्ण ने जहां असुरों का वध किया तो वहीं वृन्दावन से प्रेम का संदेश भी दिया। कृष्ण ने वृन्दावन के निधिवन में 16108 गोपियों के साथ रास भी किया। माना जाता है की भगवान कृष्ण राधा सहित यहां आज भी रास रचाने आते हैं। महारास का वर्णन कई वेदों और पुराणों में देखने को मिलता है। इसका प्रमाण यह भी माना जाता है कि निधिवन में बने भगवान के रंग महल में राधा जी के श्रृंगार के लिए रात्रि में रखे गए श्रृंगार की वस्तुयें सुबह रंगमहल खोलने पर देखते हैं तो श्रृंगार का सामान इस्तेमाल किया हुआ प्रतीत होता है और शयन शैया का चादर ऐसा लगता है कि कोई इस पर आकर आराम करके गया हो और पीने के लिए रखा हुआ पानी लोटे में कम या बिलकुल नहीं मिलता है। रंगमहल वही स्थान है जहां भगवान रास के बाद अपनी थकान मिटने के लिए राधा रानी के साथ आराम किया करते थे। निधि वन में जितने भी पेड़ हैं वे एक दूसरे से इस तरह लिपटे हुए हैं मानो कोई के दूसरे को परस्पर अपनी बाहों में लिए हुए हों। कहा जाता है कि रात्रि में यही पेड़ कृष्ण और गोपियों का रूप धारण करते हैं और करते हैं महारास। निधिवन में आज भी भगवान के जगह-जगह चरण चिन्ह देखने को मिलते हैं। निधिवन पूरे देश का केवल एक ऐसा मंदिर है जहां राधा जी को बांसुरी बजाते हुए दिखाया है। इसके पीछे की कथा यह है कि राधा जी को भगवान कि बांसुरी से जलन होने लगी थी, तो उन्होंने भगवान कि बांसुरी को चुरा कर उनसे दूर करना चाहा था, क्योंकि जब भगवान अपनी बांसुरी को बजाते थे तो सभी गोप-गोपियां और गायें उस स्थान पर आ जाती थीं। राधा जी की कामना होती कि भगवान के साथ वह अकेले में कुछ क्षण बितायें इसीलिए उन्होंने भगवान की बांसुरी को चुराकर ये देखना चाहा कि यदि मैं भी इस बांसुरी को बजाऊं तो क्या गोप-गोपियां आदि आते हैं या नहीं, लेकिन ऐसा नहीं हुआ तो राधा जी ने स्वयं बांसुरी को भगवान से क्षमा मांगते हुए वापस कर दी।
कृष्ण ने अपनी लीलाओं में उन सभी लीलाओं को किया, जिससे कोई ना कोई संदेश जाता हो। उन्होंने महज 7 वर्ष की आयु में ही गोवर्धन पर्वत जैसे विशाल पर्वत को अपनी उंगली पर उठाकर इंद्र का मान मर्दन किया था, जब इंद्र ने देखा कि ब्रजवासी इनकी पूजा न करके गोवर्धन पर्वत की पूजा कर रहे हैं, तो नाराज हो गए और घनघोर वर्षा की, इससे ब्रजवासी भयभीत हो गए और कृष्ण की शरण में पहुंचे। कृष्ण ने गोवर्धन पर्वत उठाकर परिवार की रक्षा की और इंद्र का मान मर्दन किया।