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भारतीय सिने जगत के पहले ‘महानायक’ का दर्जा प्राप्त करने वाले के. एल. सहगल ने अपने दो दशक के लंबे कॅरियर में महज 185 गीत ही गाए जिनमें 142 फिल्मी और 43 गैर फिल्मी शामिल हैं। लेकिन उन्हें जितनी ख्याति प्राप्त हुयी उतनी हजारों की संख्या में गीत गाने वाले गायकों को नसीब नहीं होती।
बचपन से ही सहगल का रूझान गीत-संगीत की ओर था। उनकी मां केसरीबाई कौर धार्मिक कार्यकलापों के साथ साथ संगीत में भी काफी रूचि रखती थीं। सहगल अक्सर मां के साथ भजन, कीर्तन जैसे धार्मिक कार्यक्रमों में जाया करते थे और अपने शहर में रामलीला के कार्यक्रमों में भी हिस्सा लिया करते थे। सहगल ने किसी उस्ताद से संगीत की शिक्षा नहीं ली थी लेकिन सबसे पहले उन्होंने संगीत के गुर एक सूफी संत सलमान यूसुफ से सीखे थे।
बचपन से ही सहगल को संगीत की गहरी समझ थी और एक बार सुने हुये गानों के लय को वह बारीकी से पकड़ लेते थे। उनकी प्रारंभिक शिक्षा बहुत ही साधारण तरीके से हुई थी। उन्हें अपनी पढ़ाई बीच में ही छोड़ देनी पड़ी और जीवन यापन के लिये रेलवे में टाईमकीपर की मामूली नौकरी की थी। बाद मे उन्होंने रेमिंगटन नामक टाइपराइंटिग मशीन की कंपनी में सेल्समैन की नौकरी भी की।
वर्ष 1930 में कोलकाता के न्यू थियेटर के बी.एन. सरकार ने सहगल को 200 रुपए मासिक पर अपने यहां काम करने का मौका दिया। वहां उनकी मुलकात संगीतकार आर. सी. बोराल से हुई जो सहगल की प्रतिभा से काफी प्रभावित हुई। धीरे-धीरे सहगल न्यू थियेटर मे अपनी पहचान बनाते चले गए। शुरूआती दौर में बतौर अभिनेता सहगल को वर्ष 1932 में प्रदर्शित उर्दू फिल्म ‘मोहब्बत के आंसू’ में काम करने का मौका मिला।
वर्ष 1932 में ही बतौर कलाकार उनकी दो और फिल्में ‘सुबह का सितारा’और ‘जिंदा लाश’ भी प्रदर्शित हुई लेकिन इन फिल्मों से उन्हें कोई खास पहचान नहीं मिली। वर्ष 1933 में प्रदर्शित फिल्म ‘पुराण भगत’ की कामयाबी के बाद बतौर गायक सहगल कुछ हद तक फिल्म इंडस्ट्री में अपनी पहचान बनाने में सफल हो गए। इस फिल्म में उनके गाए चार भजन देश भर में काफी लोकप्रिय हुए।
इसके बाद ‘यहूदी की लडक़ी’, ‘चंडीदास’ और ‘रुपलेखा’ जैसी फिल्मों की कामयाबी से सहगल ने दर्शकों का ध्यान अपनी गायकी और अदाकारी की ओर आकर्षित किया। शरत चंद्र चट्टोपाध्याय के उपन्यास पर आधारित पी.सी. बरूआ निर्देशित फिल्म ‘देवदास’की कामयाबी के बाद सहगल बतौर गायक और अभिनेता शोहरत की बुंलदियों पर जा पहुंचे। इस फिल्म में उनके गाए गीत काफी लोकप्रिय हुए। इस बीच सहगल ने न्यू थियेटर निर्मित कई बांग्ला फिल्मों में भी काम किया।
वर्ष 1937 में प्रदर्शित बंग्ला फिल्म ‘दीदी’ की अपार सफलता के बाद सहगल बंगाली परिवार में हृदय सम्राट बन गए। उनका गायन सुनकर रवीन्द्र नाथ टैगोर ने कहा था, ‘‘सुंदर गला तोमार आगे जानले कतो ना आंनद पैताम।’’ अर्थात आपका सुर कितना सुंदर है पहले पता चलता तो और भी आनंद होता। वर्ष 1946 मे सहगल ने संगीत सम्राट ‘नौशाद’ के संगीत निर्देशन में फिल्म ‘शाहजहां’ में ‘गम दिये मुस्तकिल’ और ‘जब दिल ही टूट गया’ जैसे गीत गाकर गायिकी का अलग समां बांधा।
दो दशक के सिने करियर में सहगल ने 36 फिल्मों में अभिनय भी किया। हिंदी फिल्मों के अलावा सहगल ने उर्दू, बंग्ला और तमिल फिल्म में भी अभिनय किया। अपनी जादुई आवाज और अभिनय से सिने प्रेमियों के दिल पर राज करने वाले के. एल. सहगल 18 जनवरी 1947 को महज 43 वर्ष की उम्र में इस दुनिया को अलविदा कह गए।