2014 के लोकसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी को 22.35 और बहुजन समाज पार्टी को 19.77 फीसदी वोट मिले थे, जबकि 2019 में सपा को 17.96 और बसपा को 19.26 फीसदी वोट मिले। मतलब सपा का वोट शेयर तो गिरा, लेकिन बसपा का कमोबेश वही रहा। वर्ष 2014 जिस बसपा का खाता तक नहीं खुला था, 2019 में उसकी सीटों की संख्या 10 तक पहुंच गई। ऐसे में यह कहना सरासर गलत होगा कि बसपा प्रत्याशियों को समाजवादी पार्टी और राष्ट्रीय लोकदल के मतदाताओं के वोट नहीं मिले।
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BSP Alliance” src=”https://new-img.patrika.com/upload/2019/06/06/akhilesh_mayawati_4673399-m.jpg”>मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक, उत्तर प्रदेश में फतेहपुर सीकरी सीट के अलावा शेष सभी 37 सीटों पर बसपा को 2014 के मुकाबले ज्यादा वोट मिले हैं। 2019 में बसपा ने सूबे की जिन 10 सीटों पर जीत दर्ज की है, 2014 में उन सीटों पर बसपा का वोटर शेयर काफी कम था। समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव प्रोफेसर रामगोपाल यादव ने कहा कि अगर समाजवादी पार्टी के वोट बसपा को ट्रांसफर नहीं होते तो बहुजन समाज पार्टी 10 सीटें जीतने में सफल नहीं रहती। बसपा को 2014 मुकाबले मिले ज्यादा ज्यादा
सहारनपुर- 2014 में बसपा को 19.67 फीसदी वोट मिले थे, जबकि 2019 में 41.74 फीसदी वोट मिले
बिजनौर- 2014 में बसपा को 21.7 फीसदी वोट मिले थे, जबकि 2019 में 50.97 फीसदी वोट मिले
नगीना- 2014 में बसपा को 26.6 फीसदी वोट मिले थे, जबकि 2019 में 56.31 फीसदी वोट मिले
अमरोहा- 2014 में बसपा को 14.87 फीसदी वोट मिले थे, जबकि 2019 में 51.41 फीसदी वोट मिले
जौनपुर- 2014 में बसपा को 21.93 फीसदी वोट मिले थे, जबकि 2019 में 50.8 फीसदी वोट मिले
लालगंज- 2014 में बसपा को 26.01 फीसदी वोट मिले थे, जबकि 2019 में 54.01 फीसदी वोट मिले
श्रावस्ती- 2014 में बसपा को 19.88 फीसदी वोट मिले थे, जबकि 2019 में 44.31 फीसदी वोट मिले
अंबेडकरनगर- 2014 में बसपा को 28.29 फीसदी वोट मिले थे, जबकि 2019 में 51.75 फीसदी वोट मिले
गाजीपुर- 2014 में बसपा को 24.49 फीसदी वोट मिले थे, जबकि 2019 में 51.20 फीसदी वोट मिले
घोषी- 2014 में बसपा को 22.48 फीसदी वोट मिले थे, जबकि 2019 में 50.30 फीसदी वोट मिले
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अखिलेश को कमजोर साबित करने की कोशिशबीजेपी नेताओं का कहना है कि अखिलेश यादव ने मृतप्राय बसपा में जान फूंकने का काम किया है और मायावती ने काम निकलते ही बड़ी चालाकी से न केवल अखिलेश यादव से किनारा कर लिया, बल्कि उन्हें अपने से कमजोर नेता साबित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। बसपा प्रमुख ने बड़ी ही खूबसूरती से अखिलेश को खुद से कमजोर खिलाड़ी साबित कर दिया है। उपचुनाव अकेले लड़ने की घोषणा करते वक्त उनकी यह जताने की कोशिश रही कि बसपा तो इस गठबंधन को चलाना चाहती थी, पर अखिलेश उनकी बराबरी में कहीं नहीं ठहरते। मायावती ने यादव वोट पर उनकी पकड़ मजबूत न होने की तोहमत मढ़ते हुए, अखिलेश यादव नेतृत्व क्षमता पर ही सवाल उठा दिये हैं। हालांकि, मायावती ने विधानसभा उपचुनाव अकेले लड़ने की घोषणा करते हुए भी यह गुंजाइश छोड़ी है कि आगे चलकर फिर गठबंधन हो सके, बशर्ते कि अखिलेश यादव अपने लोगों को मिशनरी बनाने में कामयाब हों।
जरूरी नहीं हर प्रयोग सफल हो : अखिलेश
महागठबंधन पर अखिलेश यादव ने कहा कि मैं विज्ञान का छात्र रहा हूं। वहां अक्सर प्रयोग किये जाते हैं। जरूरी नहीं है कि हर प्रयोग सफल हो। अखिलेश यादव ने कहा कि मैं आज भी वही कहता हूं कि मायावती जी का सम्मान मेरा सम्मान है। मायावती के अकेले उपचुनाव लड़ने की घोषणा पर अखिलेश यादव ने कहा कि अगर हमें उत्तर प्रदेश विधानसभा का उपचुनाव अकेले लड़ना है, तो मैं भविष्य की रणनीति के लिए अपनी पार्टी के नेताओं से सलाह लूंगा।
महागठबंधन पर अखिलेश यादव ने कहा कि मैं विज्ञान का छात्र रहा हूं। वहां अक्सर प्रयोग किये जाते हैं। जरूरी नहीं है कि हर प्रयोग सफल हो। अखिलेश यादव ने कहा कि मैं आज भी वही कहता हूं कि मायावती जी का सम्मान मेरा सम्मान है। मायावती के अकेले उपचुनाव लड़ने की घोषणा पर अखिलेश यादव ने कहा कि अगर हमें उत्तर प्रदेश विधानसभा का उपचुनाव अकेले लड़ना है, तो मैं भविष्य की रणनीति के लिए अपनी पार्टी के नेताओं से सलाह लूंगा।
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अखिलेश की सहयोगी नहीं प्रतिद्वंदी होंगी मायावतीराजनीतिक जानकारों का कहना है कि मायावती ने एक सोची-समझी चाल के तहत खुद को गठबंधन से मुक्त कर लिया है। वजह साफ है कि वह चाहती हैं कि गठबंधन यूपी में कम से कम 60 सीटें जीतता तो वह केंद्र में वह पीएम पद की दावेदार होती। अब जब ऐसा नहीं हो सका तो वह उत्तर प्रदेश में खुद मुख्यमंत्री बनना चाहेंगी। ऐसे में 2022 के विधानसभा चुनाव में मायावती अब अखिलेश यादव की सहयोगी नहीं, बल्कि कड़ी प्रतिद्वंदी होंगी। जबकि अखिलेश यादव ने गठबंधन इसी शर्त पर किया था कि मायावती को केंद्र भेजकर वह यूपी की राजनीति करेंगे।