इन 11 सीटों के चुनाव परिणाम यह बताते हैं कि उत्तर प्रदेश में सबसे अधिक नुकसान में बहुजन समाज पार्टी रही है। समाजवादी पार्टी से गठबंधन तोड़ने के बाद मायावती के लिए यह पहला चुनाव था, जिसमें उनके अप्रत्याशित निर्णय की परीक्षा होनी थी। पिछले 20 सालों से अंबेडकरनगर (जलालपुर ) में अजेय कही जाने वाली बसपा के लिए यह सबसे बड़ा झटका है कि उसने अपनी जीती हुई सीट भी गवां दी। आश्चर्यजनक तथ्य यह भी है कि अंबेडकरनगर में खुद बसपा के ताकतवर सांसद भी अपनी पार्टी की उम्मीदवार को नहीं जिता पाये। उसे यहां दूसरे नंबर पर संतोष करना पड़ा। सभी 11 सीटों का विश्लेषण यह बताता है कि मायावती से उनके परम्परागत दलित और ओबीसी वोटर छिटक रहे हैं और मुसलमानाों को अपने पक्ष में करने का बसपा सुप्रीमो का दावा भी हवा-हवाई साबित हुआ है। रामपुर जैसी सीट पर जहां मुस्लिम मत निर्णायक स्थिति में है, वहां बसपा प्रत्याशी को चार हजार वोट भी न मिल पाना यह साबित करता है कि मायावती और बसपा को गंभीर चिंतन की जरूरत है। आजम खान इस सीट से पिछले तीन दशक से राजनीति करते रहे हैं और इस बार भी उन्होंने न हारने की कसम खाई थी। तंजीम फातिमा की जीत यह बताती है कि रामपुर अब भी सपा के लिए अभेद्य गढ़ बना हुआ है।
भाजपा से अनबन होने के बावजूद अपना दल की अनुप्रिया पटेल अपना रसूख बनाये रखने में कामयाब रहीं। प्रतापगढ़ सदर की सीट पहले से ही अपना दल के पास थी और इस बार भी अपना दल ने अपनी बादशाहत कायम रखी है। लेकिन, प्रतापगढ़ में एआइएमआइएम का उभरना सपा-बसपा के लिए गंभीर चुनौती साबित होगा। भले ही रालोद पश्चिमी उत्तर प्रदेश में अपनी मजबूत स्थिति का दावा ठोंकती रही है, लेकिन जमीनी हकीकत यही है कि बिना मजबूत संगठन के चौधरी की बादशाहत अब सिर्फ कागजों में ही सिमट कर रह गई है। भारतीय जनता पार्टी के लिए उपचुनाव यह संदेश हैं कि जनता की नाराजगी अच्छे कामों पर भी भारी पड़ती है। राष्ट्रवाद और हिंदुत्व का कार्ड भी इस चुनाव में नहीं चल पाया। मतदाताओं का दिल जीतना है तो जमीन पर उतरकर कार्य करना ही होगा। अन्यथा तस्वीर पलटते देर नहीं लगती।