राजनीति शास्त्र के पूर्व विभागाध्यक्ष ने बताई नारों की सच्चाई
लखनऊ विश्वविद्यालय में राजनीति शास्त्र के विभागाध्यक्ष रहे एसके द्विवेदी का कहना है कि नारों का प्रयोग बहुत पुराना है। इनका मनोवैज्ञानिक असर क्षणिक होता है। अब समय बदल गया है। नारे ज्यादा प्रभावी नहीं होते हैं। जैसे भाजपा ने जो नारा दिया है, उसका उद्देश्य हिंदू ध्रुवीकरण करना है। सपा ने जो पीडीए का नारा दिया है, वो अल्पसंख्यकों को खुश करना है। कुछ असर नारों का होता है। लेकिन, वह ज्यादा समय तक के लिए नहीं रहता है। यह केवल अपने देश तक नहीं सीमित है, अन्य देशों में भी इसका प्रयोग होता है। अभी जो नारा दिया गया, उसका असर उपचुनाव में हो सकता है। ‘बंटेंगे तो कटेंगे’ का नारा काफी चर्चित हो रहा है।
बटेंगे तो कटेंगे का सही मायने में क्या है अर्थ?
उन्होंने कहा कि भाजपा के ‘बंटेंगे तो कटेंगे’ में बंटने का मतलब केवल हिंदू से नहीं है। बल्कि, राष्ट्र को मजबूत बनाने के लिए एकजुट होना है। अगर आपस में बंट जाएंगे, तो देश कमजोर होगा। कटने से मतलब देश का नुकसान से है। लेकिन, मतदाता समझ रहे हैं। यह भाव उसके पीछे नहीं है। अभी हाल के दिनों पीएम मोदी ने एक नारा दिया है ‘एक हैं तो सेफ हैं।’ उनके नारे का पढ़े-लिखे लोगों का विश्लेषण है कि देश में एकता है तो सुरक्षित हैं। लेकिन, जो सामान्य मतदाता हैं, उसे दूसरे ढंग से पेश कर रहे हैं। नारों की राजनीति बंद होना चाहिए। यह राजनीतिक व्यवस्था के लिए अच्छा नहीं है। नारे का ज्यादा लाभ नहीं होता है। इसका कुछ क्षण का लाभ है।
वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक ने बताया नारा हिट होने का कारण
वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक वीरेंद्र सिंह रावत का कहना है कि इस देश में नारों की राजनीति दशकों से चली आ रही है। लेकिन, अब आधुनिकता के युग में उसका लाभ पाने के लिए हिट करना पड़ता है। वर्तमान में देखें तो इसका उदाहरण ‘बंटेंगे तो कटेंगे’ में भी देखने को मिलता है। करीब दो माह पहले बोला गया स्लोगन इतना हिट हो गया। इसमें अहम रोल सोशल मीडिया का है।उन्होंने बताया कि नारों के माध्यम से ही अपने एजेंडे को पब्लिक के सामने रखा जाता है। इसका उदाहरण अगर पीछे जाकर देखने को मिलेगा जैसे कि ‘जय जवान, जय किसान’ यह नारा लाल बहादुर शास्त्री ने दिया था। लेकिन, यह कांग्रेस के चुनावी मैदान में ठीक से उभरा। ऐसे ही समाजवादियों ने ‘बांधी गांठ, पिछड़े पावें, सौ में साठ।’ 70 के दशक में ओबीसी वोटरों को एकजुट करने के लिए सोशलिस्टों ने इस नारे को चुनावी राजनीति में इस्तेमाल किया। ‘गरीबी हटाओ’ के नारे का प्रयोग इंदिरा गांधी के चुनाव में किया गया।
‘इंदिरा हटाओ, देश बचाओ’ का दिया उदाहरण, ये नारे भी रहे चर्चित
रावत ने बताया कि आपातकाल के दौर में जुल्म से परेशान लोगों ने ‘इंदिरा हटाओ, देश बचाओ’ का नारा गढ़ा। इसने कांग्रेस को सत्ता से बेदखल कर दिया। वीपी सिंह का दिया नारा ‘राजा नहीं फकीर है, देश की तकदीर है।’ खूब चर्चित रहा। सपा-बसपा के गठबंधन के दौर में ‘मिले मुलायम-कांशीराम, हवा में उड़ गए जय सिया राम’ भी खूब हिट हुआ। फिर, ‘सबको देखा बारी-बारी, अबकी बारी अटल बिहारी,’ ‘इंडिया शाइनिंग’ बनाम ‘आम आदमी को क्या मिला’ जैसे नारे भी खूब चले। राम मंदिर आंदोलन के दौरान भी ‘सौगंध राम की खाते हैं, मंदिर वहीं बनाएंगे’, इसके अलावा ‘एक ही नारा, एक ही नाम, जय श्री राम, जय श्री राम’ जैसे नारे भी खूब गूंजे। उस दौर में ‘अटल-आडवाणी कमल निशान, मांग रहा है हिन्दुस्तान’ से आगे बढ़ें तो भाजपा की ओर से गढ़ा गया नारा ‘अच्छे दिन आने वाले हैं’ से लेकर ‘सबका साथ, सबका विकास, सबका विश्वास’ और ‘अबकी बार, मोदी सरकार’ से लेकर ‘बार-बार मोदी सरकार’ भी लोगों की जुंबा पर रहा। इसके साथ ‘हर-हर मोदी, घर-घर मोदी’ जैसे नारों ने तो जोरदार पब्लिसिटी की। ‘मोदी है तो मुमकिन है’, ‘अबकी बार चार सौ पार’, ‘जो राम को लाए हैं, हम उनको लाएंगे’, ‘एक हैं तो सेफ हैं’, ‘बंटेंगे तो कटेंगे’, जैसे नारे भी हैं। उपचुनाव में इन नारों का क्या असर होगा, यह तो आने वाला वक्त ही बताएगा।