1930 से 1950 का वह दौर, जब देश में कांग्रेस की तूती बोलती थी। उस समय हिंदुत्व की बात करना गुनाह था और राम मंदिर के बारे में तो सोचना ही नामुमकिन। ऐसे लोगों को रुढ़िवादी और प्रतिगामी माना जाता था। हिंदुत्व का विरोध धर्मनिरपेक्षता की सबसे बड़ी कसौटी थी। ऐसे समय में गोरखपुर स्थित गोरक्षपीठ के तत्कालीन पीठाधीश्वर ब्रह्मलीन महंत दिग्विजयनाथ जिनका ताल्लुथक चित्तौड़ से था उन्होंने सड़क से लेकर विधानसभा और संसद तक हिंदुत्व और राम मंदिर की बात को पूरी दमदारी से उठाया। सच तो यह है कि करीब 500 वर्षों से राम मंदिर के आंदोलन 1934 से 1949 के दौरान आंदोलन चलाकर एक बेहद मजबूत बुनियाद और आधार देने का काम उन्होंने ही किया था।
मालूम हो कि मजबूत इरादा और आत्मसम्मान से समझौता न करना उनकी खूबी थी। ये खूबियां नान्हू सिंह (दिग्विजय सिंह का बचपन का नाम) को उस माटी से मिली थी,जहां के वे मूलत: थे। मालूम हो कि वे चित्तौड़ मेवाड़ ठिकाना ककरहवां में वैशाखी पूर्णिमा 1894 में पैदा हुए थे। पर पांच साल की उम्र में गोरखपुर आए तो यहीं के होकर रह गए। 1931 में जब कांग्रेस तुष्टीकरण की नीति पर चलते हुए कम्यूनल अवार्ड से तकरीबन सहमत हो गयी तो वह हिंदू महासभा में शामिल हो गए। 1962, 1967, 1969 में उन्होंने विधानसभा क्षेत्र मानीराम का प्रतिनिधित्व किया। 1967 में गोरखपुर संसदीय सीट से सांसद निर्वाचित हुए। इस रूप में वह लगातार हिंदुत्व और राम मंदिर की पैरोकारी करते। यह क्रम 28 सितंबर 1969 में चिरसमाधि लेने तक जारी रहा।
गोरक्षपीठ की अगली तीन पीढिय़ों ने इस सिलसिले को न केवल आगे बढ़ाया, बल्कि उसे भी विस्तार दिया। उनके शिष्य ब्रहमलीन महंत अवेद्यनाथ तो अशोक सिंघल और परमहंस के साथ मंदिर आंदोलन के कर्णधारों में थे। बतौर उत्तराधिकारी उनके साथ दो दशक से लंबा समय गुजारने वाले उत्तर प्रदेश के मौजूदा मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ पर भी इस पूरे परिवेश की छाप पड़ी। बतौर सांसद उन्होंने संसद अपने गुरू के सपने को आवाज दी। मुख्यमंत्री होने के बावजूद अपनी पद की गरिमा का पूरा खयाल रखते हुए कभी राम और रामनगरी से दूरी नहीं बनाई। अपने गुरू के सपनों को अपना बनाकर वह अपने समय से आगे थे।
लेखक- गिरीश पांडेय, वरिष्ठ पत्रकार