ये है पूरा मामला मामला 2014 का है, जब हल्द्वानी के एक महा विद्यालय में शिक्षक उनके बड़े पुत्र का सड़क दुर्घटना में निधन हो गया. अतिवृद्ध दंपती के सामने बहू और उनके दो छोटे-छोटे बच्चों को पालने की जिम्मेदारी थी. मृतक आश्रित कोटे में उनकी बहू को हल्द्वानी में कॉलेज में नौकरी मिल गई, लेकिन उसके सामने समस्या थी कि अनजान जगह पर अकेले दो छोटे बच्चों के साथ रहे तो अतिवृद्ध सास-ससुर का क्या होगा? इसलिए उसने अपने बच्चों को सास-ससुर के पास हरदोई में छोड़ा और इस आशा में नौकरी ज्वाइन कर ली कि पारिवारिक स्थिति देखते हुए सरकारें शायद उसका तबादला उत्तर प्रदेश के गृह जिले या आसपास कर दें. वह इसके लिए प्रयास प्रारंभ ही करतीं, इससे पहले ही डॉक्टर वंशीधर शुक्ल के दूसरे बेटे, जिसकी नई-नई शादी हुई थी, की बीमारी के कारण मौत हो गई. एक वर्ष के भीतर दो बेटों की मौत से डॉ शुक्ल एकदम टूट गए.
उत्तराखंड सरकार ने दी अनुमति पर अपनी सरकार ने किया निराश डॉ बंशीधर शुक्ल और उनकी पत्नी पहले से ही आयु जनित ब्याधियों से पीड़ित थे. ऐसे में दोनों को पुत्रों की मौत ने उन्हें तोड़कर रख दिया. इसके बाद भी उनके ऊपर पौत्र की परवरिश की जिम्मेदारी भी आ पड़ी. इसके बाद उन्होंने सरकारी स्तर पर बहू के स्थानांतरण की कवायद शुरू की. हर स्तर पर कई-कई पत्राचार किया, लेकिन किसी स्तर पर कोई मदद नहीं मिली. हालांकि उत्तराखंड सरकार ने स्थानांतरण की अनुमति दे दी, लेकिन उत्तर प्रदेश की सरकार से उन्हें कोई मदद नहीं मिली.
निराश हुए बुजुर्ग बहू के स्थानांतरण के लिए डॉ शुक्ल का संघर्ष चार वर्ष से अनवरत जारी है. सरकारी तंत्र को लिखी चिट्ठियां न जाने कहां चली जाती हैं. कोई सुधि लेने वाला नहीं. किसी स्तर पर कोई सुनवाई नहीं. वह कहते हैं कि अब उनकी ऐसी अवस्था भी नहीं रही कि दौड़-भागकर किसी से अनुनय-विनय करें. उन्होंने अब सबकुछ भगवान पर छोड़ दिया है. वह कहते हैं कि जब नियति ने ही उनका सबकुछ छीन लिया है, तो नौकरशाही से कैसी शिकायत.