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लखनऊ

अचानक से 12 हजार में क्यों बिकने लगा भूसा, 80रु लीटर मिलेगा दूध

अमूमन 500 रुपए प्रति क्विंटल बिकने वाला भूसा इन दिनों 1000 रुपए प्रति क्विंटल बिक रहा है। बढ़े हुए दामों का असर पशुपालकों पर भी पड़ रहा है। जानवरों के लिए चारे का संकट खड़ा हो गया है।

लखनऊMay 20, 2022 / 03:55 pm

Karishma Lalwani

Straw Prices on Increase Creating Problems for Gaushala Operators

File Photo of Cow During Milk Process With Straw

देशभर में गर्मी का मौसम अपने चरम पर है। वहीं खेती किसानी के लिए ये सीजन बहुत महत्वपूर्ण माना जाता है। जिसमें गेंहू की कटाई होती है। जिससे लोगों को पूरे साल भर खाने का अनाज और पशुओं के लिए भूसा मिलता है। लेकिन 500 रुपए प्रति क्विंटल के हिसाब से बिकने वाला भूसा इस समय 1200 रुपये से लेकर 1500 रुपये तक बिक रहा है। महंगे भूसे ने पशु पालन करने वाले किसानों के साथ साथ डेयरी चलाने वालों पर काफी बोझ बढ़ा दिया है। जिससे अब गाय और भैंस का दूध भी महंगा होने जा रहा है। इस बार भूसे की वजह से आम तौर पर 60 रुपये लीटर मिलने वाला दूध अब 80 रुपये से लेकर 100 रुपये तक मिलने की संभावना है। वहीं छोटे किसानों के जानवरों के लिए चारे का संकट खड़ा हो गया है। पशु पालक और गौशालाओं के प्रबंधक महंगे भूसे से परेशान हैं। कीमतों में उछाल के कारण पशु पालकों को मजबूरी में इस काम से मुंह मोड़ना पड़ेगा, क्योंकि पशुपालन महंगा सौदा साबित हो रहा है। वहीं उत्तर प्रदेश की योगी आदित्यनाथ सरकार में छुट्टा रहने वाले जानवर और गौवंश भूखे मरने को मजबूर होंगे। वहीं, भारत के 7 राज्यों में इसकी खपत बढ़ने के कारण भी भूसा महंगा हो रहा है। भूसे के साथ ही चूनी-चोकर भी महंगा हो रहा है।
खर्च बढने पर बढ़े दूध के दाम

प्रदेश में भूसा महंगा हो गया है। महंगे भूसे ने पशुपालकों का खर्च बढ़ा दिया है। इस पर पशुपालकों ने दूध के दाम बढ़ा दिए हैं। दूध के दाम बढऩे से पहले से ही महंगाई की मार झेल रहे आम आदमी के लिए मुसीबत बढ़ गई है। लखनऊ से किसान रवि सिंह कहते हैं कि उनके गांव में ही दो महीने पहले तक भूसा 2000 रुपये प्रति क्विंटल बिकता था। इस समय गेहूं की ज्यादातर कटाई हो चुकी है। इसके बावजूद 1000 रुपये प्रति क्विंटल भूसा बिक रहा है। कुछ महीने पहले 3000 रुपये प्रति क्विंटल तक थी।
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मुसीबत में गोवंश संचालक

कान्हा उपवन के प्रबंधक यतींद्र कहते हैं कि उनके यहां 10 हजार गोवंश है। प्रति गोवंश चार किलो ग्राम भूसा और 1.5 किलोग्राम चोकर खिलाना होता है। रोजाना 400 क्विंटल भूसे की खपत है। लखनऊ के आसपास गेहूं बहुत कम है। ऐसे में इस बार भूसे की खरीद में परेशानी हुई थी। गाय पालने में भी परेशानी हो रही है। इधर-उधर से चंदा लेकर गाय पल रही है। भूसे के रेट बढऩे पर गौशाला चलाना ही मुश्किल हो गया है।
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दाम बढने की वजह

भूसे के रेट बढने के कई मुख्य कारण हो सकते हैं। इस साल गेहूं का रकबा ही कम हुआ। ज्यादातर लोगों ने सरसों की बोआई कर ली। इससे भूसे की कमी हुई, रेट बढऩे शुरू हो गए। दूसरी वजह ये भी है कि लोग अब हाथ की बजाय मशीन से गेहूं काटने में लगे हैं। मशीन से ऊपर-ऊपर की कटाई की जाती है और पुआल खेत में जला दिया जाता है।
मध्य प्रदेश, राजस्थान, हरियाणा, दिल्ली और महाराष्ट्र में डिमांड बढ़ी

आपको बता दें कि दुनिया भर में हर साल लगभग 73.4 करोड़ टन गेहूं के भूसे या पराली का उत्पादन किया जाता है, जो बड़ी मात्रा में कूड़े की तरह फेंक दिया जाता है, या जला दिया जाता है। गेहूं का यह भूसा सस्ता है और अब तक इसका अच्छी तरह से उपयोग नहीं किया गया है। हाल ही में स्पेन के कॉर्डोबा विश्वविद्यालय में आरएनएम केमिकल इंजीनियरिंग और एफकयूएम नानोवाल ऑर्गेनिक केमिस्ट्री रिसर्च ग्रुप्स ने पॉलीयूरीथेन फोम बनाने में गेहूं के भूसे का उपयोग करने में सफलता प्राप्त की हैं।
रबर के रूप में भी जाना जाता है

पॉलीयुरेथेन एक पॉलिमर है जो कार्बामेट लिंक से जुड़ने वाली कार्बनिक इकाइयों से बना है। पोलीयूरीथेन फोम रबर के रूप में भी जाना जाता है, यह प्लास्टिक सामग्री, जिसे अक्सर पेट्रोलियम सह-उत्पादों से निर्मित किया जाता है, उद्योग के लिए बहुत आवश्यक है और इसका उपयोग निर्माण और ऑटोमोबाइल क्षेत्रों में सीलेंट के साथ-साथ कई तरह के सामान बनाने तथा एक थर्मल और ध्वनिक इन्सुलेटर बनाने के लिए किया जा सकता है।
चिली के एडवांस्ड पॉलिमर

चिली के एडवांस्ड पॉलिमर रिसर्च सेंटर (सीआईपीए) ने इसको बनाने में अहम भूमिका निभाई है। शोधकर्ताओं ने गेहूं के कचरे से एक नया प्रयोग किया है। कचरे को तरल में बदला जाता है, जिससे पॉलीओल्स प्राप्त किए जाते हैं। ये पॉलीओल्स उन प्रमुख यौगिकों में से एक हैं जो रासायनिक प्रतिक्रिया में एक अहम भूमिका निभाते हैं जो पोलीयूरीथेन फोम बनाते हैं।
आज तक अरंडी का तेल टिकाऊ पोलीयूरीथेन फोम प्राप्त करने की दौड़ में प्रमुख में से एक रहा है जिसे पेट्रोलियम की आवश्यकता नहीं होती है। शोधकर्ता एस्तेर रिनकॉन द्वारा बताया गया कि यह वनस्पति तेल के हवा के संपर्क में आने से यह पूरी तरह से कठोर और सूखता नहीं है जो कि रबर फोम बनाने की उचित प्रक्रिया में से एक है। यह शोध पॉलिमर नामक पत्रिका में प्रकाशित हुआ है।

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