मायावती के अलावा अब सावित्रीबाई फुले यूपी की राजनीति में दलित चेहरा बनने की ओर अग्रसर हैं। राजनीतिक विश्लेषक भले ही सावित्रीबाई फुले को दलित राजनीति का बड़ा चेहरा न मानते हों, लेकिन उनके समर्थक उनमें मायावती की ही छवि देखी है। बचपन में ही वह भी मायावती से काफी प्रभावित थीं। एक बार उन्हें मायावती की रैली में जाने का मौका मिला, जहां उनके पारिवारिक गुरु अछेवरनाथ कनौजिया ने मंच पर उनसे भाषण दिलवा दिया। उनके भाषण से बसपा सुप्रीमो खासी प्रभावित हुईं। उनके पिता को भी उनमें मायावती की छवि नजर आने लगी। इसके बाद उन्होंने फुले को राजनीति में जाने के लिए प्रेरित किया। उनका कहना था कि जब मायावती मुख्यमंत्री बन सकती हैं तो उनकी बेटी क्यों नहीं? मायावती की तरह दलित समाज के लिए कुछ करने की चाह, उन्हीं के जैसी कदकाठी, कंधे तक कटे बाल और उन्हीं की तरह मिलती-जुलती जिंदगी की कहानी लेकर वह यूपी की राजनीति में उतर गईं।
राजनीतिक करियर
सावित्री बाई फुले ने अपना राजनीतिक सफर बहुजन समाज पार्टी से शुरू किया था। एक विवाद के कारण मायावती ने वर्ष 2000 में उन्हें बसपा से निष्कासित कर दिया था। 2001 में वह जिला पंचायत का चुनाव जीतीं और फिर बीजेपी में शामिल हो गईं। 2001 से 2012 तक वह जिला पंचायत सदस्य रहीं। वर्ष 2002, 2007 और 2012 में वह बीजेपी के टिकट पर विधानसभा चुनाव लड़ीं। 2012 में बहराइच जिले की बलहा सीट से विधायक चुनी गईं। 2014 में बीजेपी के टिकट पर लोकसभा सांसद चुनी गईं। 2019 के लोकसभा चुनाव से पहले बीजेपी छोड़कर वह कांग्रेस में शामिल हो गईं और अब ‘कांशीराम बहुजन समाज पार्टी’ नाम से खुद के दल का गठन किया है।
सावित्री बाई फुले ने अपना राजनीतिक सफर बहुजन समाज पार्टी से शुरू किया था। एक विवाद के कारण मायावती ने वर्ष 2000 में उन्हें बसपा से निष्कासित कर दिया था। 2001 में वह जिला पंचायत का चुनाव जीतीं और फिर बीजेपी में शामिल हो गईं। 2001 से 2012 तक वह जिला पंचायत सदस्य रहीं। वर्ष 2002, 2007 और 2012 में वह बीजेपी के टिकट पर विधानसभा चुनाव लड़ीं। 2012 में बहराइच जिले की बलहा सीट से विधायक चुनी गईं। 2014 में बीजेपी के टिकट पर लोकसभा सांसद चुनी गईं। 2019 के लोकसभा चुनाव से पहले बीजेपी छोड़कर वह कांग्रेस में शामिल हो गईं और अब ‘कांशीराम बहुजन समाज पार्टी’ नाम से खुद के दल का गठन किया है।