लखनऊ

श्रीलंका के मध्य में आज भी है रावण का महल, कार्बन डेटिंग के बाद मानने लगे वैज्ञानिक

Ram Mandir Katha 9: पत्रिका राम मंदिर कथा के इस एपिसोड में आज हम आपको श्रीराम के वनगमन की कथा बताने वाला हूं, जिसमें निषादराज से लेकर सीता हरण तक की कथा शामिल है।

लखनऊSep 28, 2023 / 07:52 am

Markandey Pandey

यह आश्रम नासिक के पंचवटी क्षेत्र में है, जो गोदावरी नदी के किनारे बसा है। यहीं पर लक्ष्मण ने शूर्पणखा की नाक काटी थी।

जिस पावन भूमि अयोध्या की रज में लोटपोट करके मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम जीवन संग्राम के लिए तैयार हो रहे थे। उसी अयोध्यापुरी से अब पिता की आज्ञा पर वनवास के लिए निकलना पड़ा। एक तरफ राज्याभिषेक की तैयारी तो दूसरी तरफ वनवास का आदेश… आज हम चर्चा करेंगे आज से नौ लाख वर्ष पहले श्रीराम, लक्ष्मण और सीता का वनगमन किन रास्तों से हुआ।
अयोध्या से करीब 25 किलोमीटर दूर तमसा नदी बहती है, जो आजकल बरसाती नदी जैसी हो गई है। लाखों साल पहले यह नदी इतनी बड़ी रही होगी, जिसे पार करने में श्रीराम, सीता और लक्ष्मण को नाव का सहारा लेना पड़ा था। तमसा नदी के किनारे ही ऋषि च्यवन का आश्रम भी रहा होगा, जिस स्थान पर इन दिनों प्राचीन शिव मंदिर स्थित है।
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श्रीराम शोध केंद्र के डॉ अवतार शर्मा ने राम वन गमन मार्ग पर विस्तृत शोध किया है। जब हमने श्रीराम के वन गमन के मार्गो को लेकर विभिन्न ग्रंथों, इतिहास की पुस्तकों और रामचरित मानस के जानकारों से संपर्क किया तो तमसा के आगे श्रृंगवरेपुर नाम सामने आया। श्रृंगवेरपुर तीर्थ गंगा जी के किनारे स्थित है। यह प्रयाग से करीब 20-22 किलोमीटर दूरी पर है। यहीं पर निषादराज की कथा का वर्णन श्रीराम चरित मानस में गोस्वामी तुलसीदास करते हुए लिखते हैं कि
मांगी नाव न केवल आना, कहहूं तुम्हार मरम मै जाना…

माना जाता है कि यहां के शासक निषादराज थे। यहीं पर गंगा के तट पर उन्होंने केवट से गंगा पार करने को कहा था। श्रृंगवेरपुर को वर्तमान में सिंगरौर कहा जाता है। थोड़ा आगे बढऩे पर कुरई गांव है, जहां श्रीराम ने अपने अनुज और पत्नी के साथ रात्री विश्राम किया था।
कुरई गांव से आगे जाने पर श्रीराम प्रयाग पहुंचे थे और महर्षि भारद्वाज के आश्रम गए। लाखों साल पहले इस आश्रम के किनारे ही गंगा प्रवाहित होती रही होंगी लेकिन अब यहां से 4 से 5 किलोमीटर दूर हो गई हैं। आश्रम अब प्रयाग शहर के बीच में आ चुका है। यह वहीं प्रयाग तीर्थ है जिसे कुछ समय पहले तक इलाहाबाद के नाम से जाना जाता था। श्रीराम चरित मानस के अनुसार भगवान श्रीराम ने महर्षि भारद्वाज से मार्गदर्शन प्राप्त किया और प्रयाग से आगे बढ़ते हुए चित्रकूट पहुंचे।
काशी में चाणक्य पीठ के आचार्य सुदर्शन जी महाराज कहते हैं कि

‘महर्षि भारद्वाज ने विमान शास्त्र की रचना किया था। इसके अलावा वह वन, जंगल और पर्वतों के जानकार थे। यदि हम उन्हें तत्कालीन वैज्ञानिक के साथ भूगोलवेत्ता कहें तो अतिश्योक्ति नहीं होगी।’
प्रयाग में ही यमुना को पारकर भगवान श्रीराम चित्रकूट पहुुंचे। चित्रकूट वह स्थान है, जहां राम को मनाने के लिए भरत अपनी सेना के साथ पहुंचते हैं। तब जब उनके पिता दशरथ का देहांत हो जाता है। भरत जी जब भगवान को मना नहीं पाते तो उनकी चरण पादुका लेकर भारी मन से वापस लौट आते हैं। अयोध्या से करीब 20-22 किलोमीटर दूर नंदीग्राम में वह 14 सालों तक तपस्वी की तरह रहते हुए अयोध्या का शासन चलाते हैं।
मध्यप्रदेश के बाद शुरू हुआ वनवास

चित्रकूट बुंदेलखंड का इलाका है, जहां से आगे बढऩे पर मध्यप्रदेश की सीमा प्रारंभ हो जाती है। चित्रकूट से आगे सतना होते हुए वह अत्रि ऋषि के आश्रम पहुंचते हैं। हालांकि अनुसूइया पति महर्षि अत्रि चित्रकूट के तपोवन में रहा करते थे, लेकिन सतना में रामवन नामक स्थान पर भी श्रीराम रुके थे, जहां ऋषि अत्रि का आश्रम बताया जाता है। इसके बाद दंडकारण्य में प्रवेश करते हैं। रामकथा मर्मज्ञ आचार्य राजेश ठाकुर बताते हैं कि
‘चित्रकूट से निकलकर श्रीराम घने वन में पहुंचे थे। आज भी यह इलाका वनों से आच्छादित हैं। असल में यहीं से शुरु था उनका वनवास। इस वन को उस काल में दंडकारण्य कहा जाता था।’
मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और महाराष्ट्र के कुछ क्षेत्रों को मिलाकर दंडकाराण्य था। दंडकारण्य में छत्तीसगढ़, ओडिशा और आंध्रप्रदेश राज्यों के अधिकतर हिस्से शामिल हैं।

आंध्रप्रदेश में हैं जटायु का मंदिर

दरअसल, उड़ीसा की महानदी के इस पार से गोदावरी तक दंडकारण्य का क्षेत्र फैला हुआ था। इसी दंडकारण्य का हिस्सा है आंध्रप्रदेश का शहर भद्राचलम। गोदावरी नदी के तट पर बसा यह शहर सीता- रामचंद्र मंदिर के लिए प्रसिद्ध है। यह मंदिर भद्रगिरि पर्वत पर है। कहा जाता है कि श्रीराम ने अपने वनवास के दौरान कुछ दिन इस भद्रगिरि पर्वत पर ही बिताए थे। स्थानीय मान्यता के मुताबिक दंडकारण्य के आकाश में ही रावण और जटायु का युद्ध हुआ था और जटायु के कुछ अंग दंडकारण्य में आ गिरे थे। ऐसा माना जाता है कि दुनिया भर में सिर्फ यहीं पर जटायु का एकमात्र मंदिर है।
नासिक में कटी थी शूर्पणखा की नाक

दण्डकारण्य में मुनियों के आश्रमों में रहने के बाद श्रीराम अगस्त्य मुनि के आश्रम गए। यह आश्रम नासिक के पंचवटी क्षेत्र में है, जो गोदावरी नदी के किनारे बसा है। यहीं पर लक्ष्मण ने शूर्पणखा की नाक काटी थी। यही वह स्थान है जहां पर श्रीराम और लक्ष्मण ने खर-दूषण के साथ युद्ध किया था। गिद्धराज जटायु से श्रीराम की मैत्री भी यहीं हुई थी। वाल्मीकि रामायण के अरण्यकांड में पंचवटी का मनोहर वर्णन मिलता है।
नासिक में ही हुआ था सीता हरण

महाराष्ट्र के नासिक में ही शूर्पणखा की नाक कटने और मारीच समेत खर व दूषण का वध हो जाने के बाद रावण ने सीता का हरण किया और जटायु का भी वध किया था। जिसकी स्मृति नासिक से करीब 56 किमी दूर ताकेड गांव में सर्वतीर्थ नामक स्थान पर आज भी संरक्षित है। जटायु की मृत्यु सर्वतीर्थ नाम के स्थान पर हुई, जो नासिक जिले के इगतपुरी तहसील के ताकेड गांव में मौजूद है। इस स्थान को सर्वतीर्थ इसलिए कहा गया, क्योंकि यहीं पर मरणासन्न जटायु ने सीता माता के बारे में बताया। यहीं पर श्रीराम पने जटायु का अंतिम संस्कार, श्राद्ध तर्पण किया था। यही वह स्थान है जहां लक्ष्मण ने रेखा खींच दी थी।
अब हम नासिक से आगे बढ़ते हैं तो हमें आंध्रप्रदेश के खम्मम जिले की चर्चा करनी होगी जो भगवान राम की कथा से जुड़ा हुआ स्थान है। खम्मम जिले में ही भद्राचलम में स्थित है। रामालय से लगभग एक घंटे की दूरी पर स्थित पर्णशाला को पनशाला या पनसाला आदि नामों से भी जानते हैं। पर्णशाला गोदावरी नदी के तट पर स्थित है। मान्यता है, कि यही वह स्थान है जहां मां सीता का हरण रावण ने किया था। जबकि कुछ विद्वान मानते हैं कि इस स्थान पर रावण ने अपना विमान उतारा था। इस स्थल से ही रावण ने सीता को पुष्पक विमान में बिठाया था, यानी सीताजी ने धरती को यहां ही छोड़ा था। इसी से वास्तविक हरण का स्थल यह माना जाता है। यहां पर राम-सीता का प्राचीन मंदिर आज भी मौजूद है।
विश्व हिंदू परिषद के पदाधिकारी आशुतोष श्रीवास्तव बताते हैं कि

‘भगवान श्रीराम से जुड़े स्थलों पर काफी अध्ययन किया गया है, जिसके आधार पर उनके वन गमन मार्ग को निश्चित कर लिया गया है। वह कहते हैं कि सर्वतीर्थ और पर्णशाला के बाद राम और लक्ष्मण, माता सीता की खोज में तुंगभद्रा और कावेरी नदियों के क्षेत्र में पहुंच गए। तुंगभद्रा और कावेरी नदी क्षेत्रों के अनेक स्थलों पर वे सीता की खोज में भटकते रहे।’
केरल में स्थित है माता शबरी का स्थान, उनका नाम श्रमणा था

जटायु के अंतिम संस्कार के बाद वे ऋष्यमूक पर्वत पर पहुंचे और रास्ते में वे पम्पा नदी के पास शबरी आश्रम भी गए, जो आजकल केरल में स्थित है। शबरी जाति से एक भीलनी थीं और उनका नाम था श्रमणा। आजकल जिसे पम्पा नदी कहा जाता है उसे ही प्राचीन काल में तुंगभद्रा कहा जाता था। इसी नदी के किनारे पर हम्पी बसा हुआ है। हमारे पौराणिक ग्रंथ रामायण में हम्पी का उल्लेख वानर राज्य किष्किंधा की राजधानी के तौर पर किया गया है। केरल का प्रसिद्ध सबरीमलय या सबरीमाला मंदिर तीर्थ भी इसी नदी के तट पर स्थित है।
ऋष्यमूक पर्वत पर हुई हनुमान से भेंट

ऋष्यमूक पर्वत पर ही हनुमान से श्रीराम की भेंट हुई है। यह मलय पर्वत से आगे चंदन के वनों को पार करने पर पड़ता है। हनुमान और सुग्रीव से भेंट होने के बाद उन्होंने सीता माता के आभूषणों को देखा, यहीं पर बालि का वध हुआ। ऋष्यमूक पर्वत और किष्किंधा नगर कर्नाटक के हम्पी, जिला बेल्लारी में स्थित है। पास की पहाड़ी को मतंग पर्वत माना जाता है। यहीं पर मतंग ऋषि का आश्रम था, जो हनुमानजी के गुरु भी थे।
गोस्वामी तुलसीदास के श्रीराम चरित मानस के अनुसार हनुमान और सुग्रीव से मिलने के बाद भगवान श्रीराम ने वानर सेना का गठन किया और लंका की ओर चल पड़े। आगे तमिलनाडु की लंबी तटरेखा जो लगभग 1,000 किमी तक विस्तारित है। कोडीकरई नाम के समुद्र तट पर जो कि वेलांकनी के दक्षिण में स्थित है, जो पूर्व में बंगाल की खाड़ी और दक्षिण में पाल्क स्ट्रेट से घिरा हुआ है। यहीं पर श्रीराम की सेना ने पड़ाव डाला और सेना को कोडीकरई में एकत्रित कर विचार विमर्श किया।
तमिनाडू के कोडीकरई में नहीं बना रामसेतु

सेना ने उस स्थान के सर्वेक्षण के बाद जाना कि यहां से समुद्र को पार नहीं किया जा सकता और यह स्थान पुल बनाने के लिए उचित भी नहीं है, तब श्रीराम की सेना ने रामेश्वरम की ओर कूच किया। रामेश्वरम को शांत समुद्र तट माना जाता है और यहां पर पानी भी कम गहरा है। वहां पहुंचने के बाद भगवान श्रीराम ने महादेव शिव की पूजा अर्चना किया। वाल्मीकि रामायण के अनुसार तीन दिन की खोजबीन के बाद श्रीराम ने रामेश्वरम के आगे धनुष्कोंडी की खोज हुई जहां से आसानी से श्रीलंका पहुंचा जा सकता है।
नोट- नुवारा एलिया पर्वत श्रृंखला समेत भारत और श्रीलंका के अनेक स्थानों की कार्बन डेटिंग के बाद लगभग यह प्रामाणिक माना जाने लगा है। जैसे श्रीलंका के मध्य में स्थित रावण के महल, यहां की पहाड़ियों, गुफाओं, खंडहरों, अशोक वाटिका पुरातात्विक अवशेषों की जांच के बाद लगभग यह रामायण कालीन ही प्रमाणित होने लगी हैं।

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