पूर्वोत्तर भारत से लेकर दक्षिण तक राममय भारत अयोध्या से सात समुद्र पार नरोत्तम राम के पहुंचने की चर्चा हम कर चुके हैं। विभिन्न भाषा, बोली और स्थानीय संस्कृति में कश्मीर से कन्याकुमारी, अटक से कटक तक राम किस प्रकार रमते हैं, इसे देखना भी कम रोमांचकारी नहीं है। इसे जानने के लिए सबसे पहले हमने डॉ विश्वजीत मिश्र से संपर्क किया जो राजीव गांधी केंद्रीय विश्वविद्यालय, इटानगर से थोड़ा आगे रोनो हिल्स पर स्थित दोईमुख, अरुणांचल प्रदेश में हिंदी के प्रोफेसर हैं। वह बताते हैं कि
‘बीते पचास सालों में पूर्वोत्तर में चर्च की गतिविधियां काफी बढ़ी हैं लेकिन धर्म बदलने के बाद भी संस्कृति पर जो गहरी छाप है, उसे बदल पाना संभव नहीं हुआ है। जनजातियों में आज भी राम और कृष्ण गहरे तक विराजमान हैं। भाषा अलग हो सकती है, त्योहार और परंपराएं अलग हो सकते हैं लेकिन उनके मूल में राम और कृष्ण हैं। लोकभाषा, लोक संस्कृति और लोक कलाओं में इसे आप देख सकते हैं।’
गुवाहाटी के वरिष्ठ पत्रकार सुशांत तालुकदार बताते हैं कि ‘असम में रामकथा का प्रभाव यहां की लोक संस्कृति में, काव्य में, लोक नाट्य, चित्रकला लगभग हर जगह मौजूद है। असम के सांस्कृतिक जीवन में श्रीराम का आदर्श भौतिकवादी युग में तनाव से मुक्त होने का माध्यम है। राज्य भर में आपको श्रीराम से संबंधित अनेक मंदिर और तीर्थ सहज रुप में मिल जाएंगे।’
इसी तरह उड़ीसा में उड़िया भाषा में गोस्वामी तुलसीदास के श्रीरामचरित मानस के आधा दर्जन से अधिक अनुवाद मिल जाएंगे। यहां पर धूमधाम से श्रीरामलीला का मंचन किया जाता है, साथ ही यहां के समाज में हनुमान जी की पूजा का विशेष महत्व है। प्रमुख तीर्थ जगन्नाथ पुरी में रामनवमी को भव्य आयोजन किया जाता है। रामानुज संप्रदाय का एम्मार मठ यहीं पर है। यहां की लोक कला और चित्रकला में श्रीराम लोकमानस में गहरे तक उतरे हैं।
राजीव गांधी केंद्रीय विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के अध्यक्ष कोथेन लेगो बताते हैं कि देश की पूर्वी सीमा मणिपुर में 1467 ईस्वी में मणिपुर के राजा कियांबा को म्यामार के पोंग राजा खेखोंभा ने भगवान विष्णु की मूर्ति भेंट किया था। मणिपुर के राजा ने रामानंदी सम्प्रदाय का व्यापक प्रचार-प्रसार कराया था। उसी समय से मणिपुर में रामकथा का प्रचलन शुरू हो गया था। यहां पर दशहरे के दिन को रामणकप्पा अर्थात रावण वध का दिन मनाते हैं। यहां पर श्रीराम के नाम पर यहां के राजाओं ने सिक्के भी जारी किए हैं।
अयोध्या में अंकुरित, पुष्पित और पल्लिवित हुई संस्कृति अवध का अतिक्रमण करते हुए पूरे देश-दुनिया में फैल गई। यहां तक कि लोगों के जीवन का महत्वपूर्ण अंग बनकर संस्कृति में रच बस गई। अयोध्या के रामलला, वनवासी राम, राजा रामचंद्र और मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम से गढ़े गए प्रतिमान और संस्कार लोगों के दिलों में बैठ गए जो इहलौकि और पारलौकिक जीवन दर्शन को समेटे थी। श्रीराम की संस्कृति का प्रभाव ही है कि रामलीला देश के सभी प्रांतों में अलग-अलग भाषाओं, बोलियों में आज भी प्रचलित है।
मिथिला निवासी स्वामी आदित्य आनंद बताते हैं कि मिथिला की लोक चित्रकला तो मधुबनी में है ही, मिथिलांचल में विवाह परंपरा में रामकथा का स्पष्ट प्रभाव है जो युग-युगांतर से प्रचलन में है। इसी तरह उत्तर प्रदेश और मध्यप्रदेश के बीच बुंदेलखंड का इलाका तो राममय है ही, यहां चित्रकूट की पहचान ही भगवान राम और गोस्वामी तुलसीदास के कारण जाना जाता है। भगवान ने यहां पर कई वर्षो तक निवास किया। चित्रकूट वह वनगमन करते हुए आए थे। जबकि झांसी के पास ओरछा में तो राजा राम का प्रसिद्ध मंदिर है जिसकी महिमा किसी भी तरह अयोध्या से कम नहीं कही जा सकती।
महाकवि कालीदास अपने कृति मेघदूत में चित्रकूट के रामगिरी आश्रम को प्रसिद्ध रामतीर्थ कहा है। बुंदेलखंड से ही सटा हुआ पन्ना जिला है, जहां के नचना गांव में श्रीराम से जुड़ी मूर्तिकला का पहला अंकन किया गया है। इसी तरह झांसी के देवगढ़ के विष्णु मंदिर में भी ऐसी ही मूर्तिकला देखने को मिलती है।
बुंदेलखंड की निवासी और पेशे से अध्यापक पदमा राजन बताती है कि कालिंजर के दुर्ग का पांचवां दरवाजा हनुमान द्वार कहा जाता है। खजुराहों में भी चंदेल राजाओं ने हनुमान जी की विशाल प्रतिमा की स्थापना किया है। बुुंदेलखंड का प्रसिद्ध दीवार नृत्य पर भगवान श्रीराम का प्रभाव देखा जा सकता है। इसी तरह दीपावली के दिन यहां पर कामदगिरी क्षेत्र में शस्त्र प्रदर्शन किया जाता है जो भगवान राम के लंका विजय से वापस आने के उपलक्ष्य में किया जाता है।
अब हम ब्रज क्षेत्र मथुरा पर नजर डालते हैं। हांलाकि ब्रज भगवान कृष्ण की जन्मभूमि और लीला भूमि है लेकिन यहां भी कृष्ण लीला के साथ रामलीला का मंचन भी उतना ही लोकप्रिय है। मथुरा से थोड़ा आगे बढ़े और राजस्थान का रुख करें तो राजस्थानी चित्रकला में श्रीराम का अद्भुत प्रभाव देखने को मिलेगा। मेवाड़ शैली में रामायण का चित्रांकन देखने लायक है। इसी तरह मेवाड़, कोटा, बूंदी, किशनगढ़, अलवर, बिकानेर, जयपुर में श्रीराम चरित मानस और वाल्मीकि कृत रामायण के आधार पर अद्भुत चित्र बनाए गए हैं। इसके अलावा राजस्थानी लोकगीतों में भी श्रीराम चरित्र का गायन किया जाता है।
दक्षिण भारत की चर्चा करें तो कर्नाटक में तो लगभग हर घर में कोई रामप्पा, रामयप्पा, रामचंद्रया, रामचंद्रप्पा, रामचंद्र राव, रामराव जैसे नाम मिलेंगे। कर्नाटक के लोक संगीत में रामप्रिय और रघुप्रिय राग ही पाए जाते हैं। कन्नड़ भाषा में गीतों, लोक परंपरा, त्योहार में श्रीराम की संस्कृति के प्रभाव को देखा जा सकता है। यहां का यक्षगान और नृत्य में रामकथा का ही मंचन किया जाता है। इसके अलावा कठपुतलियों के माध्यम से रामलीला का आयोजन किया जाता है। इसी तरह आंध्रप्रदेश मेेंं भद्राचलम नगर की स्थापना श्रीराम की भक्ति में ही किया गया है। इसे आप आंध्रप्रदेश की अयोध्या कह सकते हैं।
रामकथा के जानकार आचार्य राजेश बताते हैं कि गुंटुर जिले में जटायु ने रावण से युद्ध किया था। पंचवटी गोदावरी नदी के तट पर आंध्रप्रदेश के गुंटुर जिले में ही स्थित है। यही पर शबरी का आश्रम भी है, इसके अलावा किष्किंधा पर्वत भी आंध्रप्रदेश में ही है जहां सुग्रीम और राम की मित्रता हुई थी। यहीं पर बालि का वध किया गया था।
केरल हाईकोर्ट में अधिवक्ता और योग शिक्षक जगदीश लक्ष्मण बताते हैं कि ‘आप मेेरा ही नाम देख लिजिए इससे आपको तमिलनाडू और केरल में श्रीराम के प्रभाव का अंदाजा हो जाएगा। मै केरल का हूं, मलयाली हूं लेकिन मेरा नाम जगदीश लक्ष्मण है। केरल और तमिलनाडू के घर-घर में लोग मिलेगें जिनका नाम रामायण के पात्रों के नाम पर हैं। हमारे यहां रावण, मेघनाथ, कुंभकरण का पुतला दहन नहीं किया जाता लेकिन दशहरे के समय रामायण का पाठ किया जाता है। हनुमान जी की पूजा और सुुंदरकांड घर-घर होता है।’
तमिलनाडू में नयनार संतों को कौन भूल सकता है। नयनार, आलावार संत परंपरा भगवान विष्णु से जुड़ी है, जिसमें रामावतार की पूजा की जाती है। इसके अलावा तमिल भाषा में कम्ब रामायण तमिलनाडू समेत पूरे दक्षिण भारत में आदर से पढ़ा जाता है। जगदीश लक्ष्मण बताते हैं कि
केरल में रामकथा गाकर अपनी जीविका चलाने वाली पंडारण जाति आज भी है। जिनको लोग आदर सम्मान देते हैं। यहां पर कच्चू रामन, कच्यूरामन, रामपुरम, रामनगरी,रामनाट्यपुरा जैसे स्थान है। कोई भी कार्य हो लोग श्रीराम का नाम लेना नहीं भूलते। आज भी प्रत्येक शुभकार्य का आरंभ श्रीराम जय राम जय जय राम से ही होता है।