ये है धन्वन्तरि जयन्ती कथा (Dhanvantari Jayanti Katha)
धन्वन्तरि भगवान शरद पूर्णिमा को चंद्रमा, कार्तिक द्वादशी को कामधेनु गाय, त्रयोदशी को धन्वन्तरि, चतुर्दशी को काली माता और अमावस्या को भगवती लक्ष्मी जी का सागर से उत्पन हुए थे। इसीलिये दीपावली से दो दिन पहले भगवान धन्वन्तरि का जन्म हुआ था, इसलिए इस दिन को हमलोग धनतेरस पर्व के रूप में मनाया जाता है।
धन्वन्तरि को भगवान विष्णु का रूप माना जाता है भगवान् धन्वन्तरि के चार भुजायें हैं। उपर की दोंनों भुजाओं में शंख और चक्र धारण करते हैं। और दो अन्य बाजुओ मे से एक में जलूका और औषध तथा दूसरे मे अमृत कलश होता हैं। धन्वन्तरि का प्रमुख धातु पीतल माना गया है। इसीलिये हमलोग धनतेरस को पीतल आदि के बर्तन खरीदने की चलन है।
भगवान धन्वन्तरि आयुर्वेद की चिकित्सा खोज करनें वाले वैद्य अथवा स्वस्थ का देवता के रूप में माने जाते है। धन्वन्तरि ने ही सबसे पहले ‘शल्य चिकित्सा’ खोज किया। आयुर्वेद चिकित्सा का पहला विश्व विद्यालय वाराणसी के काशी में खोला गया था। जिसके प्रधानाचार्य महान चिकित्साशास्त्री सुश्रुत को बनाया गया था।
भगवाण धन्वंतरी की साधना के लिये एक साधारण मंत्र है:
ॐ धन्वंतरये नमः॥
इसके अलावा उनका एक और मंत्र भी है:
ॐ नमो भगवते महासुदर्शनाय वासुदेवाय धन्वंतराये:
अमृतकलश हस्ताय सर्वभय विनाशाय सर्वरोगनिवारणाय
त्रिलोकपथाय त्रिलोकनाथाय श्री महाविष्णुस्वरूप
श्री धन्वंतरी स्वरूप श्री श्री श्री औषधचक्र नारायणाय नमः॥
ॐ नमो भगवते धन्वन्तरये अमृत कलश हस्ताय सर्व आमय
विनाशनाय त्रिलोक नाथाय श्री महाविष्णुवे नम: ||
अर्थात
परम भगवन को, जिन्हें सुदर्शन वासुदेव धन्वंतरी कहते हैं, जो अमृत कलश लिये हैं, सर्वभय नाशक हैं, सररोग नाश करते हैं, तीनों लोकों के स्वामी हैं और उनका निर्वाह करने वाले हैं; उन विष्णु स्वरूप धन्वंतरी को नमन है।