अखिलेश यादव के सामने चुनौतियां
1- भाजपा की मजबूत चुनौती
समाजवादी पार्टी के मुखिया अखिलेश यादव के सामने विपक्ष के तौर पर भारतीय जनता पार्टी की मजबूत चुनौती है। साथ ही गठबंधन टूटने की दशा में बसपा से भी उन्हें कम चुनौती नहीं मिलेगी।
1- भाजपा की मजबूत चुनौती
समाजवादी पार्टी के मुखिया अखिलेश यादव के सामने विपक्ष के तौर पर भारतीय जनता पार्टी की मजबूत चुनौती है। साथ ही गठबंधन टूटने की दशा में बसपा से भी उन्हें कम चुनौती नहीं मिलेगी।
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2- कैसे पाएंगे खोया जनाधार
यूपी की 11 सीटों पर विधानसभा उपचुनाव में बमुश्किल 2-3 महीने का वक्त बचा है। इतने कम वक्त में अखिलेश यादव के सामने पार्टी का खोया जनाधार वापस पाना किसी चुनौती से कम नहीं है। इसके अलावा अखिलेश यादव के उ? सपा ?? कार्यकर्ताओं में जोश भरना बड़ी चुनौती होगा, जिनमें एक के बाद एक चुनाव हारने से निराशा का माहौल है।
3- अपनों की चुनौती
2017 के विधानसभा चुनाव से ठीक पहले सपा के अध्यक्ष बनने वाले अखिलेश यादव से उनके अपने ही नाराज हैं। इनमें सबसे ऊपर नाम शिवपाल सिंह यादव का है। विधानसभा के बाद निकाय चुनाव और अब लोकसभा चुनाव में शिकस्त के बाद अपने ही अखिलेश की रणनीति पर सवाल उठा रहे हैं।
2017 के विधानसभा चुनाव से ठीक पहले सपा के अध्यक्ष बनने वाले अखिलेश यादव से उनके अपने ही नाराज हैं। इनमें सबसे ऊपर नाम शिवपाल सिंह यादव का है। विधानसभा के बाद निकाय चुनाव और अब लोकसभा चुनाव में शिकस्त के बाद अपने ही अखिलेश की रणनीति पर सवाल उठा रहे हैं।
4- मुसलमानों को कैसे जोड़ेंगे?
लोकसभा चुनाव के दौरान मायावती ने मुसलमानों को लेकर बढ़त ले ली है। ऐसे में अखिलेश के सामने कड़ी चुनौती है कि वह मुसलमानों को फिर से समाजवादी पार्टी के साथ कैसे जोड़ने में सफल रहेंगे, जिन्होंने आम चुनाव में बसपा को वोट किया है।
लोकसभा चुनाव के दौरान मायावती ने मुसलमानों को लेकर बढ़त ले ली है। ऐसे में अखिलेश के सामने कड़ी चुनौती है कि वह मुसलमानों को फिर से समाजवादी पार्टी के साथ कैसे जोड़ने में सफल रहेंगे, जिन्होंने आम चुनाव में बसपा को वोट किया है।
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5- कमजोर कैप्टन की छवि
एक के बाद एक हार के बाद सपा कार्यकर्ता ही अखिलेश यादव पर कमजोर नेतृत्व की तोहमत मढ़ रहे हैं। अब तो मायावती ने भी उन्हें बड़ी खूबसूरती से खुद से कमजोर खिलाड़ी साबित कर दिया है। मायावती के रुख से स्पष्ट है कि वह जताना चाहती हैं कि बसपा तो इस गठबंधन को चलाना चाहती थी, पर अखिलेश उनकी बराबरी में कहीं नहीं ठहरते। ऐसा करके मायावती ने यादव वोट पर उनकी पकड़ मजबूत न होने की तोहमत मढ़ते हुए, अखिलेश यादव नेतृत्व क्षमता पर ही सवाल उठा दिये हैं।
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मायावती के सामने चुनौतियां
1- भाजपा की मजबूत चुनौती
लोकसभा चुनाव में सपा-बसपा और रालोद ने मिलकर भारतीय जनता पार्टी का सामना किया था। इस बार उनके सामने विधानसभा चुनाव के बाद एक और जीत से उत्साहित संगठित भाजपा है। खासकर सपा से अलग चुनाव लड़ने की स्थिति में बसपा को सपा और भाजपा से मुकाबला करना आसान नहीं होगा।
2- मुसलमानों का साथ
लोकसभा चुनाव में मायावती को बड़ी संख्या से मुस्लिमों ने वोट किया, जो अभी तक सबसे सपा को करते रहे हैं। गठबंधन टूटने की स्थिति में मायावती के लिए मुसलमानों का साथ पाना आसान नहीं होगा, क्योंकि उनके सामने समाजवादी पार्टी कड़ी चुनौती बनकर खड़ी होगी। 1992 के बाद से बड़ी संख्या में सपा को मुस्लिम तबके का साथ मिलता रहा है। सपा से अलग होने के बाद मुस्लिमों में भ्रम की स्थिति बनेगी।
लोकसभा चुनाव में मायावती को बड़ी संख्या से मुस्लिमों ने वोट किया, जो अभी तक सबसे सपा को करते रहे हैं। गठबंधन टूटने की स्थिति में मायावती के लिए मुसलमानों का साथ पाना आसान नहीं होगा, क्योंकि उनके सामने समाजवादी पार्टी कड़ी चुनौती बनकर खड़ी होगी। 1992 के बाद से बड़ी संख्या में सपा को मुस्लिम तबके का साथ मिलता रहा है। सपा से अलग होने के बाद मुस्लिमों में भ्रम की स्थिति बनेगी।
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3- अवसरवादी चेहरा
लोकसभा चुनाव प्रचार के दौरान ही भाजपा नेता सपा-बसपा गठबंधन को अवसरवादी बताते रहे हैं। मोदी हों योगी या कोई और भाजपा नेता सब एक सुर में कहते रहे हैं कि चुनाव परिणाम आते ही बुआ-बबुआ का गठबंधन टूट जाएगा। अब हुआ भी ऐसा। ऐसे में जब जनता के बीच अखिलेश बुआ से मिले धोखे का जिक्र करेंगे तो मायावती के लिए जवाब दे पाना आसान नहीं होगा।
4- रूठों को मनाना
बीते महीनों में बहुजन समाज पार्टी के बड़े-बड़े दिग्गज पार्टी का साथ छोड़ गये, जिनके बूते पर मायावती सोशल इंजीनियरिंग का ताना-बाना बुनती थीं। सपा से गठबंधन के बाद टिकट नहीं मिला तो कई बसपा के दिग्गज नेता पार्टी का साथ छोड़ गये। ज्यादातर कांग्रेसी हो गये। अकेले चुनाव लड़ने की दशा में रुठों को मनाकर संगठन को फिर से मजूबती से खड़ा करना मायावती के लिए बड़ी चुनौती है। साथ ही इतने कम वक्त में उपचुनाव की तैयारी करना भी आसान नहीं होगा।
बीते महीनों में बहुजन समाज पार्टी के बड़े-बड़े दिग्गज पार्टी का साथ छोड़ गये, जिनके बूते पर मायावती सोशल इंजीनियरिंग का ताना-बाना बुनती थीं। सपा से गठबंधन के बाद टिकट नहीं मिला तो कई बसपा के दिग्गज नेता पार्टी का साथ छोड़ गये। ज्यादातर कांग्रेसी हो गये। अकेले चुनाव लड़ने की दशा में रुठों को मनाकर संगठन को फिर से मजूबती से खड़ा करना मायावती के लिए बड़ी चुनौती है। साथ ही इतने कम वक्त में उपचुनाव की तैयारी करना भी आसान नहीं होगा।
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5- अकेले आसान नहीं बसपा की डगर
लोकसभा चुनाव में बहुजन समाज पार्टी के लिए सपा गठबंधन ने संजीवनी की तरह से काम किया। पिछले चुनाव में लगातार शिकस्त खाने वाली बसपा ने जब अकेले चुनाव लड़ेगी तो उसके सामने 2007 जैसा करिश्माई प्रदर्शन आसान नहीं होगा।
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